स्वरूप रानी नेहरू: एक माँ, एक सिपाही, और एक अनसुनी गाथा

इतिहास में गूंजती एक अडिग आवाज़

स्वरूप रानी नेहरू—एक माँ, एक सिपाही, और तथ्य व भावना का निर्भीक संगम। जब इतिहास के कोलाहल में महात्मा गांधी के चरखे की गूंज सुनाई देती है और जवाहरलाल नेहरू की आवाज़ संसद की दीवारों में प्रतिध्वनित होती है, तब एक धीमी पर अडिग आवाज़ भी गूंजती है—स्वरूप रानी की। वे सत्ता के शिखर से उतरकर संघर्ष की धूल में समर्पण का श्रृंगार पहनती थीं।

an ai-enhanced old photo of great mother swaroop rani with her son jawar lal nehru
महान माँ-बेटे की जोड़ी. ai से enhance किया गया माँ स्वरुप रानी नेहरु और बेटे जवाहर की तस्वीर

क्रांति का आगाज़: 1920 का बलिदान

साल 1920 में, जब महात्मा गांधी ने कांग्रेस को असहयोग और समाज-सुधार का मंत्र दिया, प्रयागराज के आनंद भवन में भी क्रांति ने जन्म लिया। मोतीलाल नेहरू ने वकालत छोड़ी, जवाहरलाल ने भी त्याग किया। स्वरूप रानी ने मात्र संपत्ति नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन कांग्रेस को समर्पित कर दिया। गहने बिके, बेटी कृष्णा को स्कूल से निकाला गया, घोड़ों के अस्तबल और चाँदी की थालियाँ इतिहास बन गईं। एक समृद्ध महिला ने साधारण चूल्हे पर दो वक्त की रोटी पकाई, क्योंकि राष्ट्र-सेवा में विलासिता की कोई जगह नहीं थी।

गर्व और नेतृत्व: 1921-1922 की दृढ़ता

6 दिसंबर 1921 को, ब्रिटिश हुकूमत ने नेहरू पिता-पुत्र को जेल में डाला। स्वरूप रानी ने आँसू नहीं बहाए, बल्कि गर्व से कहा, "अपने पति और बेटे को देश के लिए जेल भेजने का यह गौरव हर स्त्री को नहीं मिलता।" महात्मा गांधी ने कहा था, "दुनिया में अन्य लोगों के भी अपने इकलौते बेटे हैं।" 26 जनवरी 1922 को, वे ईदगाह की जनसभा में 1000 महिलाओं की नेता बनीं—कांग्रेस की पहली सशक्त महिला प्रतिनिधि। उनके लिए नेतृत्व नहीं, बलिदान आभूषण था।

नमक आंदोलन और पारिवारिक त्याग: 1930-1931

1930 में, मोतीलाल ने आनंद भवन को देश को समर्पित किया। स्वरूप रानी ने नमक आंदोलन में महिलाओं को प्रेरित किया, "यदि आप मातृभूमि के प्रति सच्चे हैं, तो हर घर में नमक बनाइए।" उनकी पुकार ने ब्रिटिश कानूनों को चुनौती दी। 6 फरवरी 1931 को मोतीलाल की मृत्यु के बाद, वे टूटी नहीं। 1932 में, कमला नेहरू से मिलने कलकत्ता पहुँचीं और उनकी सादगी देख चिंता जताई, "कम से कम एक हार और चूड़ियाँ तो पहन लो।" जवाहरलाल को जेल में तपती गर्मी में बिना पंखे देखकर उन्होंने कहा, "बेटा जेल में है, तब तक मैं पंखा नहीं चलाऊँगी।"

अंतिम आहुति : एक शेरनी की गाथा

एक दिन, चलने में असमर्थ होकर भी उन्होंने कुर्सी पर बैठकर मोर्चे का नेतृत्व किया। लाठीचार्ज में घायल होकर गिर पड़ीं, फिर बेटे को लिखा, "एक बहादुर बेटे की माँ भी उसी जैसी होती है।" अंततः देश की आज़ादी के लिए प्राणों का सर्वोच्च बलिदान दे दिया। नयनतारा सहगल ने कहा, "विधवा अवस्था में भी उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में सैनिक की भूमिका निभाई।"

स्वतंत्रता की चमकती बूंदें

स्वरूप रानी नेहरू एक नाम नहीं, बल्कि भारत माता का प्रतिरूप थीं—एक देवी, जिसने संघर्ष का व्रत लिया और शेरों की माँ व शेरनी बनीं। आज जब हम स्वतंत्रता की गाथा गाते हैं, उनकी चुपचाप बहाई गई आहुति की बूंदें इस वसुंधरा पर चमकती हैं। स्वतंत्रता केवल घोषणाओं से नहीं, माओं के आँचल से निकलती है।

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