कलम की बेईमानी
अगर कलम ईमानदार होती, तो सियासतदार झूठ बोलने से डरता। लेकिन अफसोस, आजादी के 75 साल बाद भारत के सबसे बड़े लोकतांत्रिक संस्थानों में से एक—मीडिया—खुद बंधक बन चुका है। कोई अडानी के पास, कोई शाह के दरबार में।
पुंछ की कहानी
पुंछ में गोलियाँ चलीं, छतें टूटीं, बच्चे मरे। 17 शव, 100 से ज्यादा घायल, दीवारों पर बारूद के निशान और छतों पर सिसकती उम्मीदें। लेकिन उस गांव की मिट्टी अब भी गवाह है—राहुल आया था, प्रधानमंत्री नहीं। गुरुद्वारे के पास एक बुजुर्ग सरदार ने कहा, “मोदी तो पुंछ का नाम तक नहीं लिया। हमारे जख्मों पर मरहम राहुल ने रखा है।”
राहुल vs प्रधानमंत्री
राहुल गांधी हर जगह पहुँचे—
- पहलगाम हमले के बाद अगले दिन घायलों के पास,
- कानपुर और हरियाणा में शहीदों के घर,
- CWC की बैठक बुलाई,
- इंडिया गेट पर श्रद्धांजलि दी,
- दोनों बार सर्वदलीय बैठक में शामिल हुए, जहाँ प्रधानमंत्री नहीं आए।
और प्रधानमंत्री?
- एक भी शोक-संतप्त परिवार से नहीं मिले,
- कश्मीर, पुंछ, पहलगाम नहीं गए,
- संसद का सत्र नहीं बुलाया,
- सवालों का जवाब नहीं दिया,
- उल्टा उनके नेता राहुल गांधी को पाकिस्तानी एजेंट कहने लगे।
मीडिया का चेहरा
अगर मीडिया निष्पक्ष होता, तो हर चैनल की हेडलाइन होती—प्रधानमंत्री क्यों नहीं पहुँचे पुंछ? क्या मोदी का राष्ट्रवाद सिर्फ चुनावी भाषणों में है? राहुल की संवेदनशीलता बनाम मोदी की चुप्पी। लेकिन नहीं, मीडिया ने कैमरे घुमा दिए, स्पिन कर दिया, और राहुल के पुंछ दौरे को अदृश्य कर दिया।
टीआरपी का खेल
ये वही मीडिया है जिसने पुलवामा की चिता पर टीआरपी की बिरयानी पकाई। हर शहीद की मौत को “प्रधानमंत्री का साहस” बता देता है, लेकिन यह नहीं बताएगा कि आज भी कई गाँवों में लोग पाक की गोलियों से मर रहे हैं, और प्रधानमंत्री चुनावी रैलियों में व्यस्त हैं।
कॉर्पोरेट और चुप्पी
यह वही मीडिया है जिसने राष्ट्र की सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दे को कॉर्पोरेट सौदेबाजी और प्रोपेगैंडा में बदल दिया। यही वजह है कि ड्रैगन पास और चीन-अडाणी सौदे की खबरों पर सन्नाटा पसरा है।
लोकतंत्र का दर्द
प्रेस की आजादी नहीं होती, तो संसद खोखली हो जाती। और जब संसद खोखली होती है, तो लोकतंत्र सिर्फ एक इवेंट बन जाता है—जिसका नाम लोकसभा चुनाव है।
असली दुश्मन
लोगों को समझना होगा—देश का असली दुश्मन वो आतंकवादी नहीं जो सरहद पार बैठा, बल्कि वो कैमरा है जो गोली की आवाज छुपा लेता है, और नेता के झूठ को सच बना देता है।
सवाल का वक्त
सवाल उठाइए—अब नहीं तो फिर कभी नहीं। राहुल को अपनाइए या न अपनाइए, लेकिन सच को मत छोड़िए। देश अगर खड़ा है, तो उसकी रीढ़ स्वतंत्र मीडिया है। और आज वही रीढ़, सुपारी लेकर झुक चुकी है।
पुंछ की गोलियाँ और राहुल की संवेदनशीलता सच्चाई बयाँ करती हैं, पर मीडिया की चुप्पी लोकतंत्र को कमजोर कर रही है। सवाल उठाइए, सच को बचाइए, क्योंकि देश की आत्मा न झूठे प्रोपेगैंडा में, बल्कि निष्पक्षता में बसती है।
लेखक: विजय शुक्ला
👉इस लेख को मूल संस्करण x (पूर्व मे ट्विटर) पर जो विजय जी ने लिखा यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 👈मुख्य बिंदु
पुंछ का दर्द और राहुल की मौजूदगी
पुंछ में हमले में 17 शव, 100+ घायल, दीवारों पर बारूद के निशान।
राहुल गांधी अगले दिन घायलों के पास पहुँचे, शहीदों के घर गए, CWC बुलाई, इंडिया गेट पर श्रद्धांजलि दी।
एक बुजुर्ग सरदार बोले, “मोदी ने पुंछ का नाम तक नहीं लिया, राहुल ने मरहम लगाया।”
मोदी की चुप्पी
प्रधानमंत्री न पुंछ गए, न शोक-संतप्त परिवारों से मिले।
संसद सत्र नहीं बुलाया, सवालों का जवाब नहीं दिया।
उनके नेता राहुल को “पाकिस्तानी एजेंट” कहकर प्रचार में जुटे।
मीडिया का पतन
अगर मीडिया निष्पक्ष होता, तो सुर्खियाँ होतीं: “मोदी क्यों नहीं पहुँचे पुंछ?”
इसके बजाय, राहुल के दौरे को अदृश्य कर दिया गया।
यह वही मीडिया है, जिसने पुलवामा की चिता पर टीआरपी कमाई, पर आज चीन-अडानी सौदों पर चुप है।
लोकतंत्र की खोखली रीढ़
स्वतंत्र प्रेस के बिना संसद खोखली, और लोकतंत्र मात्र एक चुनावी इवेंट।
असली दुश्मन सरहद का आतंकवादी नहीं, बल्कि वह कैमरा है जो गोली की आवाज़ छिपाता है।
मीडिया कॉर्पोरेट और सियासी हितों का बंधक बन चुका है।
सवाल उठाने का समय
राहुल को अपनाना जरूरी नहीं, पर सच को छोड़ना गलत है।
देश की रीढ़ स्वतंत्र मीडिया है, जो आज सुपारी लेकर झुक चुकी है।
सवाल न उठे, तो लोकतंत्र का भविष्य खतरे में है।