नेहरू खानदान: इतिहास, सत्य और दुष्प्रचार का अभूतपूर्व उदहारण

 नेहरू खानदान का इतिहास: कश्मीर से दिल्ली तक की यात्रा और सच्चाई



परिचय: नेहरू खानदान के खिलाफ दुष्प्रचार का जवाब

पंडित जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख योद्धा, के खानदान के बारे में सोशल मीडिया पर कई तरह के दुष्प्रचार फैलाए जाते हैं। फेसबुक और वॉट्सऐप पर मैसेज वायरल होते हैं कि "नेहरू के दादा का नाम गयासुद्दीन गाजी था" या "जवाहरलाल नेहरू एक कोठे पर पैदा हुए थे"। ये झूठी बातें नेहरू को हिंदू-विरोधी साबित करने और उनकी छवि को धूमिल करने की साजिश का हिस्सा हैं। इस लेख में, हम नेहरू खानदान की असली उत्पत्ति और इतिहास को विस्तार से जानेंगे, ताकि आप तथ्यों के आधार पर सच्चाई को समझ सकें।

कश्मीर का कौल परिवार: मुगल बादशाह का न्योता

यह बात 18वीं सदी के शुरुआती सालों की है। हिंदुस्तान पर मुगलों की हुकूमत थी, और दिल्ली देश का सत्ता केंद्र थी। उस समय गद्दी पर बादशाह फर्रुखसियर का राज था, जो 1713 से 1719 तक शासक रहे। वही फर्रुखसियर, जिन्होंने 1717 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगल साम्राज्य में रहने और व्यापार करने की इजाजत दी थी। उन दिनों कश्मीर में एक कौल परिवार हुआ करता था, जिसके मुखिया थे राज नारायण कौल।

1710 में राज नारायण कौल ने कश्मीर के इतिहास पर एक किताब लिखी—तारीखी कश्मीर। इस किताब की बड़ी तारीफ हुई, और इसकी ख्याति मुगल बादशाह तक पहुंची। 1716 में, बादशाह फर्रुखसियर ने राज नारायण के काम से प्रभावित होकर उन्हें दिल्ली आने और यहीं बसने का न्योता दिया। उस समय राजा लोग पढ़े-लिखे लोगों को अपने दरबार में जगह देते थे, और राज नारायण की विद्वता ने उन्हें यह मौका दिलाया।

दिल्ली में बसना: चांदनी चौक की हवेली

राज नारायण कौल कश्मीर छोड़कर दिल्ली आ गए। फर्रुखसियर ने उन्हें चांदनी चौक में एक हवेली और थोड़ी जागीर दी। तकरीबन दो साल बाद, 1719 में फर्रुखसियर की हत्या हो गई, लेकिन राज नारायण को मिली हवेली सलामत रही। इस हवेली का किस्सा बड़ा दिलचस्प है, क्योंकि इसी हवेली से जुड़ा है कौल परिवार के नेहरू परिवार में बदलने का रहस्य।

‘नेहरू’ नाम की उत्पत्ति: नहर से जुड़ा नाम

चांदनी चौक में राज नारायण कौल की हवेली के पास एक नहर बहती थी। उस इलाके में और भी कई कश्मीरी पंडित परिवार रहते थे। नहर के किनारे हवेली होने की वजह से लोग राज नारायण कौल के परिवार को "कौल नेहरू" कहकर पुकारने लगे। जैसे गाँवों में किसी के घर के पास नीम का पेड़ होने पर उसे "नीम वाला घर" कहते हैं, वैसे ही नहर के कनेक्शन की वजह से "नेहरू" नाम आया।

इतिहासकार और लेखक बी.आर. नंदा अपनी किताब द नेहरूस: मोतीलाल ऐंड जवाहरलाल में इस बात की पुष्टि करते हैं। खुद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में "नेहरू" सरनेम के पीछे यही कारण बताया है। हाल ही में कश्मीरनामा किताब के लेखक अशोक ने भी यही बात कही। वहीं, कुछ अन्य सिद्धांत भी हैं—लेखक टैंग का मानना है कि नेहरू परिवार शायद श्रीनगर एयरपोर्ट के पास के नौर गांव या त्राल के पास के नुहर गांव का रहने वाला था, जिसकी वजह से यह नाम पड़ा।

उत्तर भारत में दीर्घ "ई" से उपनाम बनते हैं, जैसे सुल्तानपुरी, लायलपुरी, नोमानी, देहलवी। वहीं, कश्मीर में "ऊ" से उपनाम बनते हैं, जैसे सप्रू, काठ से काटजू, कुंजर से कुंजरू। इसी तरह, नहर से "नेहरू" नाम की उत्पत्ति हुई। दिल्ली के जानकार और इतिहासकार सोहैल हाशमी बताते हैं कि उस इलाके में रहने वाले कश्मीरी पंडितों ने ही इस परिवार को "नेहरू" नाम से पुकारना शुरू किया होगा।

कौल से नेहरू: एक नई पहचान

शुरुआत में यह परिवार खुद को "कौल नेहरू" लिखता था। लेकिन मोतीलाल नेहरू ने अपने नाम से "कौल" हटा दिया और सिर्फ "नेहरू" सरनेम रख लिया। उनके बेटे जवाहरलाल ने भी पिता की इस परंपरा को अपनाया। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी छोटी बहन विजयालक्ष्मी पंडित के साथ कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान भी यही सरनेम इस्तेमाल किया। उस समय मोतीलाल नेहरू उनसे मिलने कैम्ब्रिज गए थे, और उस मुलाकात की तस्वीरें नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी में आज भी मौजूद हैं।

नेहरू खानदान का विस्तार: मुगल पतन से 1857 तक

जैसे-जैसे मुगलों की बादशाहत फीकी पड़ी, वैसे-वैसे राज नारायण कौल को मिली जागीर भी सिमटती गई। यह जागीर आखिरकार कुछ जमीन के टुकड़ों तक सीमित हो गई। इन जमींदारी अधिकारों का आखिरी फायदा मौसा राम कौल और साहेब राम कौल ने उठाया, जो राज नारायण कौल के पोते थे। इन्हीं मौसा राम के बेटे थे लक्ष्मी नारायण कौल नेहरू, और लक्ष्मी नारायण के बेटे थे गंगाधर नेहरू।

1857 के गदर के समय गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल थे। उस समय तक कौल-नेहरू परिवार को दिल्ली में बसे डेढ़ सदी से ज्यादा का वक्त बीत चुका था। 1857 के विद्रोह के दौरान दिल्ली में भारी मारकाट हुई, जिसके चलते गंगाधर नेहरू अपने परिवार के साथ आगरा चले गए।

गंगाधर से मोतीलाल तक: एक नई पीढ़ी

गंगाधर नेहरू और उनकी पत्नी इंद्राणी के पांच बच्चे हुए—दो बेटियाँ: पटरानी और महारानी, और तीन बेटे: बंसीधर, नंदलाल, और मोतीलाल। गंगाधर की मृत्यु 1861 में हुई, जब उनकी सबसे छोटी संतान मोतीलाल की माँ गर्भवती थीं। मोतीलाल का जन्म उनके पिता की मृत्यु के तीन महीने बाद हुआ। पिता के गुजर जाने के बाद परिवार को बड़े बेटे बंसीधर ने संभाला। बंसीधर आगरा की सदर दीवानी अदालत में जज के सुनाए फैसलों को लिखने का काम करते थे। बाद में वे खुद सबऑर्डिनेट जज बने।

वकीलों का खानदान: मोतीलाल से जवाहरलाल तक

बंसीधर और नंदलाल दोनों वकील बन गए। नंदलाल ने आगरा कोर्ट में वकालत शुरू की। मोतीलाल ने भी वकालत की पढ़ाई की, और इस तरह यह परिवार वकीलों का खानदान बन गया। मोतीलाल की दो शादियाँ हुईं। उनकी पहली शादी नाबालिग उम्र में हुई थी, लेकिन उनकी पहली पत्नी बच्चे को जन्म देते समय गुजर गईं। फिर 25 साल की उम्र में मोतीलाल ने दूसरी शादी की। उनकी दूसरी पत्नी का नाम था स्वरूप रानी, जिनकी शादी के समय उम्र 14 साल थी।

इन्हीं मोतीलाल और स्वरूप रानी की गृहस्थी में 14 नवंबर 1889 को एक नए सदस्य की एंट्री हुई। दोनों का एक बेटा हुआ, जिसका नाम रखा गया—जवाहरलाल। इस परिवार में मोतीलाल नेहरू से पहले तक लोग अपने नाम के साथ "कौल नेहरू" लगाते थे। लेकिन मोतीलाल ने "कौल" हटाकर सिर्फ "नेहरू" लिखना शुरू किया। उनकी शुरू की हुई यह रवायत उनके बेटे जवाहरलाल ने भी जारी रखी। इस तरह, हमें-आपको आमतौर पर सिर्फ "नेहरू" ही मालूम रह गया, और "कौल" वाली बात इतिहास की किताबों में छूट गई।

दुष्प्रचार का खंडन: गयासुद्दीन गाजी और अन्य झूठ

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ कई तरह का दुष्प्रचार किया जाता है। इन्हीं में से एक दुष्प्रचार "गयासुद्दीन गाजी" वाली बात भी है। यह झूठ फैलाया जाता है कि नेहरू खानदान मुस्लिम था और उनके दादा का नाम गयासुद्दीन गाजी था। इसके पीछे साजिश यह है कि नेहरू को हिंदू-विरोधी साबित किया जाए। लेकिन सच यह है कि नेहरू खानदान कश्मीरी पंडित था, और उनकी जड़ें हिंदू संस्कृति में गहरी थीं।

इसी तरह, यह भी प्रचारित किया जाता है कि जवाहरलाल नेहरू एक कोठे पर पैदा हुए थे। यह बात पूरी तरह आधारहीन है। नेहरू का जन्म एक सम्मानित और विद्वान परिवार में हुआ, जिसकी कहानी कश्मीर से दिल्ली तक की यात्रा और मेहनत से भरी है। जब धर्म के बहाने किसी स्वतंत्रता सेनानी की साख गिराने, उसका चरित्रहनन करने, और उसे बदनाम करने के लिए दुष्प्रचार गढ़ा जाता है, तब हमें स्टैंड लेना चाहिए। हमने लिया, और आप भी लें। फेक न्यूज़ और हेट प्रोपेगेंडा के शिकार न हों। प्रोपेगेंडा नहीं, फैक्ट्स पढ़ें।

तथ्यों पर आधारित नजरिया अपनाएं

आप नेहरू की प्रशंसा करते हैं या आलोचना, यह आपका फैसला है। लेकिन जो भी करें, तथ्यों के आधार पर करें। नेहरू खानदान की कहानी कश्मीर के एक विद्वान परिवार से शुरू होकर भारत के पहले प्रधानमंत्री तक की यात्रा की कहानी है। यह इतिहास मेहनत, विद्वता, और देशभक्ति से भरा है। 2025 में, जब सोशल मीडिया पर झूठ फैलाना आसान हो गया है, हमें सच्चाई को सामने लाने और उसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी लेनी होगी।

स्रोत नोट: विश्वसनीय दस्तावेजों पर आधारित

इस लेख को तैयार करने में कई किताबों और रिकॉर्ड्स की मदद ली गई है। द नेहरूस: मोतीलाल ऐंड जवाहरलाल (बी.आर. नंदा), कश्मीरनामा (अशोक), और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी के रिकॉर्ड्स मुख्य स्रोत रहे हैं। नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी भारत सरकार की संस्था है, और इसके दस्तावेज़ों पर भरोसा किया जा सकता है। इस लेख में कई तस्वीरें भी इन रिकॉर्ड्स से ली गई हैं। थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है, लेकिन ज्यादातर जगहों पर एक ही कहानी मिलती है।

Author - अम्बुज सक्सेना

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