सावरकर बनाम नेहरू: सोशल मीडिया पर तथ्यों की नई नजर

सावरकर और नेहरू को लेकर सोशल मीडिया पर इस साल तीखी बहस छिड़ी। जहाँ नेहरू की महानता के नए पहलू सामने आए, वहीं सावरकर की माफी, पेंशन, और गांधी की हत्या में उनकी भूमिका पर सवाल उठे। जानें कैसे सोशल मीडिया तथ्यों के आधार पर दक्षिणपंथी प्रचार को चुनौती दे रहा है।

सोशल मीडिया की बहस: नेहरू और सावरकर

इस साल सोशल मीडिया पर सावरकर और नेहरू के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिला। नेहरू के बारे में जो ज्यादातर जानकारियाँ मिलीं, उनसे नेहरू के प्रति सम्मान और बढ़ा। मगर सावरकर के बारे में जो पढ़ा, उससे मन में सावरकर के प्रति और सवाल उपजे। यह बहस तथ्यों और अफवाहों के बीच एक नई नजर डालती है, जो दोनों नेताओं के योगदान और विवादों को फिर से परख रही है।

सावरकर पर फिल्म: सच्चाई या सफाई ?

सावरकर के काले करतूत को "वाइटवाश" करने की कोशिश, 2001 में आई फिल्म वीर सावरकर

बहुत बरस पहले सावरकर पर बनी एक फिल्म देखी थी। फिल्म क्या थी, सावरकर की तरफ से मानों सफाई देने की कोशिश की गई थी। हमारी हिंदी फिल्मों की ही तरह थी कि नायक बस महान है और महान के अलावा कुछ नहीं। उसके चरित्र में कोई कमज़ोरी नहीं, कोई झोल नहीं। उस फिल्म में बताया गया था कि अंडमान निकोबार की जेल में सावरकर को बहुत यातनाएँ दी गईं और फिर सावरकर ने माफी मांगी। (फिल्म का नाम वीर सावरकर, सन 2001) निर्देशक वेद राही ने जी तोड़ कोशिश की थी कि सावरकर के माफी वाले प्रसंग को किसी तरह न्यायसंगत और तार्किक साबित कर दें, उनके पास फिल्म माध्यम की पूरी ताकत थी, वे जो चाहते दिखा सकते थे, मगर वे भी उस जगह से सावरकर को बचा कर नहीं ले जा सके।

माफी मांगने वाले में आखिर सावरकर ही क्यों?

दर्शकों के मन में सवाल उठ ही गया कि यातना तो देश के लिए जेल भुगतने वाले और कैदी भी सह रहे हैं, उन्होंने तो कोई माफी नहीं मांगी। सावरकर ने ही क्यों मांगी और मांगी तो सावरकर को वो मिल भी गई? 

बरसों पहले देखी गई उस फिल्म में यह भी रहस्यमय लगा कि अंग्रेज क्यों उन पर मेहरबान हो गए। फिल्म में सावरकर को अंग्रेजों की तरफ से मिलने वाली पेंशन का कोई ज़िक्र नहीं था। बेचारे डायरेक्टर ने उस पेंशन वाली बात को छुआ तक नहीं। ज़ाहिर है यह दक्षिणपंथी तबके द्वारा बनवाई गई प्रोपेगंडा फिल्म थी। जब उस प्रोपेगंडा फिल्म को देखकर दर्शक के मन में सवाल उठते हैं तो बाद में और तथ्य जानने पर तो उठने स्वाभाविक ही हैं।

सावरकर की जीवनी: खुद से खुद को वीर लिखने वाला स्वयंभू ‘वीर’?

सोशल मीडिया पर एक लेखक ने लिखा कि सावरकर को वीर की उपाधि खुद सावरकर ने दी थी। उनके जीते जी ही उनकी जीवनी छप कर आ गई थी। जीवनी का शीर्षक था – बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर का जीवन...। लेखक का नाम था चित्रगुप्त। इस किताब के बारे में दावे किए जाते हैं कि चित्रगुप्त कोई और नहीं खुद सावरकर ही थे। यह दावा सावरकर की छवि को और संदिग्ध बनाता है, क्योंकि यह सवाल उठता है कि क्या उन्होंने अपनी महानता स्वयं स्थापित करने की कोशिश की थी?

सावरकर और अंग्रेजी फौज: ये नंगा सच तो सबको बताना पड़ेगा !

एक अन्य लेखक ने बताया कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज में लोगों को भर्ती कराने की बजाय सावरकर अंग्रेजों की फौज में लोगों को भर्ती कराते थे। एक आंकड़ा भी दिया गया था, जो विश्वसनीय नहीं हो सकता। फिर भी, यह दावा सावरकर की देशभक्ति पर सवाल उठाता है, खासकर जब उनकी तुलना नेताजी जैसे क्रांतिकारी से की जाती है, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया।

नाथूराम गोडसे और सावरकर: हत्या का सन्देश देने के लिए कार्टून राम का चरित्र !

एक और लेखक ने बताया कि नाथूराम गोडसे एक पत्रिका निकाला करता था। पत्रिका का नाम था अग्रणी। इस पत्रिका में 1945 में एक कार्टून छपा है। 

कार्टून में रावण बताया गया है गांधी को और रावण के दस सिरों में एक सिर सरदार पटेल का भी है, जिनकी मूर्ति अभी हाल ही में बनवाई गई है। एक सिर सुभाष चंद्र बोस का भी है। याद रहे कि नाथूराम गोडसे सावरकर का शिष्य था, अनुयायी था। इस कार्टून का एक मतलब यह है कि इनकी मंडली गांधी, नेहरू के साथ-साथ सुभाषचंद्र बोस और सरदार पटेल को भी वध के लायक समझती थी। और मज़ेदार बात यह है कि इसी कार्टून में रावण की नाभि में राम बन कर तीर मार रहे हैं विनायक दामोदर सावरकर। सावरकर के साथ गांधी रूपी रावण या रावण रूपी गांधी की हत्या करते नज़र आ रहे हैं श्यामा प्रसाद मुखर्जी।

गांधी की हत्या: सावरकर की भूमिका?

सवाल उठता है कि अगर गांधी की हत्या के बाद गोडसे भाग निकलने में सफल हो गया होता, तो गोडसे क्या पटेल की भी हत्या करता? नेहरू के लिए भी घात लगाता? दस लोग इसकी हिट लिस्ट में थे, जिन्हें यह रावण बता कर उनका वध कर रहा है। यह कार्टून इसके हिंसक मन की टूलकिट की तरह था। लोग कहते हैं कि गांधी की हत्या में नाम नाथूराम गोडसे का आया, हाथ भी उसी के थे, मगर रिमोट कंट्रोल सावरकर के हाथ में था। यह भी कहा जाता है कि गांधी की हत्या का जो लिखित कारण नाथूराम गोडसे ने अदालत में बताया और पढ़ा था, वो भी सावरकर ने लिखकर दिया था। नाथूराम गोडसे में इतना लिखने की बौद्धिक क्षमता नहीं थी।

सावरकर बनाम नेहरू: प्रचार का खेल

पिछले सत्तर बरसों से सावरकर को नायक और नेहरू को खलनायक बनाने की कोशिश में तथ्यों से बहुत छेड़छाड़ की गई है। हर हाथ में मोबाइल फोन आ जाने के बाद पिछले दस बरसों से यह सब बहुत हुआ है। हमारे प्रधानमंत्री तक इस वाट्सएप प्रचार से अछूते नहीं हैं और हर बात के लिए, हर समस्या के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हैं। इस प्रचार ने सावरकर को जबरन नायक बनाने की कोशिश की, जबकि नेहरू की उपलब्धियों को दबाया गया।

सोशल मीडिया का जवाब: तथ्य बनाम अफवाह

सब कुछ ठीक ही चल रहा था, मगर इस साल से हालात बदल गए हैं। यह भी इत्तेफाक है कि एक दिन पहले नेहरू जी की पुण्यतिथि आती है और उसके अगले ही दिन सावरकर की जन्मतिथि आ जाती है। सावरकर को जबरन नायक बनाने की प्रतिक्रिया में इस बार लोगों ने सावरकर के जीवन से जुड़ी अनेक बातों पर बहुत तीखे सवाल किए हैं। इसी के साथ नेहरू के जीवन से जुड़े अनेक प्रसंग उठाकर उनकी महानता के नए पहलू खोजे हैं। यह भी नेहरू को बदनाम करने की प्रतिक्रिया में हुआ है।

सच्चाई की जीत

सोशल मीडिया इस बार तथ्य के आधार पर बात कर रहा है। अफवाहों और अतिश्योक्तियों का मज़ाक उड़ा रहा है। कुल मिलाकर सोशल मीडिया दक्षिणपंथियों के झूठ को बहुत मुखर होकर नकार रहा है और सच्चाई खोज रहा है, सच्चाई शेयर कर रहा है। यह एक नई नजर है, जो तथ्यों के आधार पर सावरकर और नेहरू की विरासत को फिर से परख रही है।

मूल आलेख - दीपक असीम

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