भारत जोड़ो यात्रा के बाद: राहुल गांधी और देश के बदलाव की चुनौती

राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया, जो निस्संदेह एक बड़ी उपलब्धि है। एक ही टी-शर्ट में साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर की यह यात्रा चर्चा का विषय बनी, और राहुल गांधी ने इस दौरान ऐसी कोई बात नहीं की, जिसका मज़ाक उड़ाया जा सके। इस यात्रा ने कांग्रेस के भीतर उनकी स्थिति को मज़बूत किया है—आज पार्टी में उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उनका जुमला, “नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलना,” वास्तविकता में बदल पाया है?

बर्फबारी के बीच भारत जोड़ो यात्रा में शामिल लोग, छाते लिए हाथ उठाकर उत्साह दिखाते हुए।
भारत जोड़ो यात्रा का प्रतीक: बर्फीले मौसम में भी एकजुटता और उत्साह। #BharatJodoYatra #RahulGandhi


यात्रा की सार्थकता पर सवाल

भारत जोड़ो यात्रा में लाखों लोगों का शामिल होना, भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में बहुत बड़ी बात नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब 12 करोड़ वोट मिले थे। अगर इसके 10% लोग भी यात्रा में शामिल हुए, तो यह संख्या एक करोड़ से अधिक हो जाती है। लेकिन यात्रा का असली महत्व तभी है, जब इसका प्रभाव स्थायी हो। अन्यथा, यह केवल एक तमाशा बनकर रह जाएगी। देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए बदलाव की सख्त ज़रूरत है, लेकिन इसके लिए राहुल गांधी को ज़मीन पर एक स्पष्ट रणनीति बनानी होगी।

देश के दो बहुमत और बदलाव की संभावना

भारत में दो बड़े बहुमत हैं: हिंदुओं का बहुमत और वंचितों का बहुमत। हिंदुओं का बहुमत भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया है, लेकिन वंचितों का बहुमत—जिनमें दलित, मुसलमान, आदिवासी, किसान, शहरी मज़दूर, बेरोज़गार, और महिलाएँ शामिल हैं—अभी भी एकजुट होने की प्रतीक्षा में है। यह वंचित समुदाय देश की 90% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। हिंदुत्ववादी शक्तियों ने आधे हिंदुओं को अपने पक्ष में खड़ा कर लिया है; अगर वंचितों का आधा हिस्सा भी एकजुट हो जाए, तो देश में बदलाव की आंधी आ सकती है।

वामपंथी शक्तियों की भूमिका और राहुल की ज़िम्मेदारी

यह काम स्वाभाविक रूप से वामपंथी दलों का है, लेकिन वे बिखरे हुए हैं। हज़ारों वामपंथी कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से ज़मीन पर काम कर रहे हैं, लेकिन एक संगठित ताकत के अभाव में वे हिंदुत्ववादी शक्तियों को चुनौती नहीं दे पा रहे। इन शक्तियों को संगठित किए बिना देश में कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं है।
क्या राहुल गांधी इस अवसर को भुना सकते हैं? क्या वे वंचितों को एकजुट करके ऐसी ताकत बन सकते हैं कि हिंदुत्ववादी शक्तियाँ उन्हें “हिंदू-विरोधी” या “राष्ट्र-विरोधी” कहने के बजाय “अर्बन नक्सल” कहने को मजबूर हो जाएँ? अगर वे ऐसा कर पाए, तो शायद महात्मा गांधी से भी बड़ी शक्ति बन सकते हैं।

कांग्रेस के भीतर चुनौतियाँ और राहुल की राह

कांग्रेस में कई लोग इस विचार के साथ नहीं चलेंगे, लेकिन राहुल गांधी को उनकी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे लोगों का पार्टी से चले जाना ही बेहतर है। महात्मा गांधी औपचारिक रूप से कांग्रेस के सदस्य न होने के बावजूद पार्टी के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे। शक्ति जनता से मिलती है, किसी पार्टी से नहीं। पार्टियाँ शक्तिशाली नेताओं के सामने नतमस्तक होती हैं। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसा संगठन भी नरेंद्र मोदी के सामने झुका हुआ है, जो इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।

राहुल के सामने अवसर और चुनौती

भारत जोड़ो यात्रा राहुल गांधी के लिए एक मज़बूत शुरुआत थी, लेकिन असली चुनौती अब है। उन्हें वंचितों को संगठित करना होगा और एक स्पष्ट वैचारिक लकीर खींचनी होगी। अगर वे ऐसा कर पाए, तो न केवल कांग्रेस को मज़बूत करेंगे, बल्कि देश में एक नए बदलाव की नींव रख सकते हैं। राहुल गांधी के पास वह साहस और दृष्टि है, जो इस बदलाव को संभव बना सकती है।

Author - Bharat Jain


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