संसद सत्र न बुलाने का रहस्य ?
इतनी असामान्य स्थिति होने के बावजूद संसद का सत्र न बुलाया जाना थोड़ा चौंकाने वाला है। यह विश्लेषण का विषय भी है। आखिर सरकार संसद सत्र बुलाने से क्यों हिचक रही है?
1. विपक्ष का नॉरेटिव: ट्रंप के बयानों से दबाव
पहलगाम के बाद स्ट्राइक को लेकर विपक्ष ने ट्रंप के मुद्दे पर सरकार को बुरी तरह घेर लिया है। अमेरिकी मध्यस्थता को लेकर ट्रंप के लगातार बयानों से सरकार बैकफुट पर है। इसकी तोड़ सरकार के पास नहीं है। आधिकारिक रूप से सीजफायर की घोषणा से पहले ट्रंप ने यह बयान दे दिया था। अगर इसे स्वीकार किया जाता, तो राहुल गांधी का नॉरेटिव—“ट्रंप का फोन आया क्यों भाई नरेंद्र, करो न सरेंडर”—पूरे देश में गूंजता और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और मोदी सरकार की छवि को धूमिल कर देता।
2. भारतीय सेना के नुकसान: छुपाए गए तथ्य और सवाल
सरकार इस बात से भी भयभीत है कि संसद में कई सवाल पूछे जाएंगे। यदि इनके जवाब टाले गए या गलत जवाब दिए गए और वे सिद्ध हो गए, तो पूरे देश में सरकार की किरकिरी होगी। कुछ तथ्य अंतरराष्ट्रीय मीडिया के माध्यम से पहले ही चर्चा में आ चुके हैं। लेकिन ऐसा माना जाता है कि कुछ तथ्य अभी भी ऐसे हैं, जिन्हें सरकार उजागर नहीं करना चाहती। संसद बुलाने के बाद इन पर चर्चा अनिवार्य हो जाएगी। यह सब सरकार के नॉरेटिव को खराब करेगा।
दरअसल, पहलगाम के बाद इस सीमित स्ट्राइक के बाद सरकार राष्ट्रवाद का मुद्दा पूरे देश में भुनाना चाहती थी। लेकिन, पुलवामा के विपरीत, इस बार सरकार कामयाब नहीं हो सकी। कुछ स्थितियाँ ऐसी बनीं, जो सरकार के विश्लेषण से बाहर थीं। यह योजना असफल हो गई।
3. राष्ट्रवाद का माहौल: जनता की उदासीनता
इस विवादास्पद स्ट्राइक के बाद मोदी जी ने प्रदेश-प्रदेश में स्वयं की पीठ थपथपाई और राष्ट्रवाद का माहौल बनाने की कोशिश की। लेकिन, जिस तरह पूरे देश ने घर-घर सिंदूर योजना पर प्रतिक्रिया दी, जिस तरह बीजेपी की तिरंगा यात्राओं को समर्थन नहीं मिला, और मोदी जी की सभाओं के बाद भी राष्ट्रवाद का वह उत्साह (यूफोरिया) नहीं बन सका, उससे सरकार को लगने लगा कि यह मुद्दा बैकफायर कर रहा है। संसद बुलाने के बाद सरकार की स्थिति और कमजोर हो सकती है। इसलिए, सरकार संसद सत्र बुलाने से डर रही है।
4. असफल विदेश नीति: विश्व मंच पर भारत की कमजोरी
दरअसल, शुरू से ही मोदी जी को लेकर एक आभामंडल तैयार करने की कोशिश रही है। यह एक वैचारिक मानसिकता का परिणाम है। उग्र हिंदुत्व की पृष्ठभूमि में उभरे एक साधारण व्यक्ति को, जो एक सामान्य शाखा का प्रचारक था, संघ का प्रचारक था, उसे विश्व गुरु का दर्जा देना और उनकी योग्यताओं को उनके वास्तविक स्तर से बहुत ज्यादा आँकना—यह इस आभामंडल की एक कड़ी थी।
जो व्यक्ति बिना टेलीप्रॉम्प्टर के अंग्रेजी नहीं बोल सकता, उसे विश्व गुरु कहना कितना उचित था? इस आभामंडल को बनाए रखने के लिए उन्हें देश-देश घुमाया गया। उन्होंने 72 देशों की यात्रा की, लेकिन भाषाई संकीर्णता के कारण वे सिर्फ एक सैलानी की तरह घूमकर आए। भारत के लिए कोई ठोस आधार तैयार नहीं कर पाए। स्ट्राइक के समय हमने देखा कि एक भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं था।
मोदी जी न तो मनमोहन सिंह की तरह अर्थशास्त्री थे, न अटल बिहारी वाजपेयी की तरह विदेशी मामलों के विशेषज्ञ, न इंदिरा गांधी की तरह दृढ़ इच्छाशक्ति वाले, और न ही नेहरू की तरह उनके पास कोई विजन था। उनके पास अगर कुछ था, तो वह एक भावनात्मक सोच थी, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) देश में भावनात्मक माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है—कभी कश्मीर को लेकर, कभी राम मंदिर को लेकर, कभी तीन तलाक को लेकर, कभी धारा 370 को लेकर।
इसलिए, मोदी जी के एजेंडे में न देश की विदेश नीति थी, न कूटनीति थी, न अर्थव्यवस्था थी। संसद बुलाने के बाद इन 12 सालों में पहली बार उन्हें इन असफलताओं का जवाब देना पड़ता, जिन्हें वे अक्सर “आपदा में अवसर” की बात कहकर खारिज करते रहे हैं। उनके एजेंडे में एक और बात थी—आम आदमी की छवि, जिसे वे भुनाते रहे, कभी गरीबों के नाम पर, कभी चाय बेचने वाले के नाम पर।
दरअसल, भारतीय राजनीति में पहले स्टेट्समैनशिप हावी थी। देश की शीर्ष राजनीति पर नेहरू के समय से ही अभिजात्यता का एक सम्मोहन था। इसलिए, मोदी जी की छवि एक आम आदमी के रूप में हिंदुस्तान के तमाम आम लोगों से कनेक्ट करती थी, जो इस अभिजात्यता के प्रति अरुचि रखते थे।
मोदी जी की एक शैली है—आम आदमी से कनेक्ट करने की, जिसमें वे पूरी तरह कामयाब रहे। लेकिन, वर्तमान संदर्भ इस आभामंडल को भी प्रभावित करते नजर आ रहे हैं। जो भ्रामक इमेज उन्होंने खरीदे हुए मीडिया से भारत की बनानी चाही, उसका दुष्प्रभाव पड़ा। एक आभासी इंफ्रास्ट्रक्चर की बात विश्व में की गई। एक आभासी अर्थव्यवस्था के नाम पर हिंदुस्तान की उत्कृष्टता की बात की गई।
जबकि, देश में स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। बेरोजगारी बढ़ रही थी, महंगाई बढ़ रही थी, रुपया गिर रहा था, मुद्रास्फीति बढ़ रही थी। लेकिन, चौथी अर्थव्यवस्था, विश्व गुरु, और तेजी से विकसित होते आधुनिक भारत की बातें की जा रही थीं। आज भी तकनीक के लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है।
इसी भ्रामक इमेज की वजह से भारत विश्व राजनीति का शिकार हो गया। पूरी विश्व राजनीति इस समय व्यापार पर आधारित है। संपन्न राष्ट्र किसी और को अपने बराबर देखना पसंद नहीं करते। लेकिन आज भारत है। चीन की आँख का किरकिरा, अमेरिका का भी। रूस ने भी भारत से एक सम्मानजनक दूरी बना रखी है। वहीं, पाकिस्तान को अमेरिका भी आशीर्वाद दे रहा है और चीन भी दूध पिला रहा है।
संसद बुलाकर यह आभासी इमेज दरक कर गिर जाती। उनका वास्तविक चित्र इस आभासी इमेज के आगे बहुत छोटा पड़ जाता। शायद सत्ताधारी दल यह नहीं चाहता था। इसलिए सवालों से बचने के लिए उसने संसद बुलाना उचित नहीं समझा।
5. बिहार चुनाव का इंतजाम: नए नॉरेटिव की कोशिश
सत्ताधारी दल बिहार चुनाव तक अनुकूल स्थिति चाहता था। वह नहीं चाहता था कि देश की मानसिकता किसी नए नॉरेटिव की ओर बढ़ने लगे। क्योंकि संसद में सामाजिक जनगणना को लेकर भी सवाल किए जाते।
चुनाव से पहले सरकार इनसे बचना चाहती थी। वह नया नॉरेटिव बनाने की कोशिश करेगी। संसद बुलाने से पहले बचे हुए दिनों में नॉरेटिव को अपने अनुकूल बनाने के लिए। और एक बार फिर सरकार ने पलायन कर दिया। शायद कल नारा भी दिया जाए—“भाग नरेंद्र भाग”।
6. राफेल का भ्रष्टाचार: जवाबदेही से बचाव
राफेल इस पूरी स्ट्राइक में विवादास्पद रहा है। लेकिन जिस तरह कांग्रेस सरकार का सौदा खारिज करके मोदी जी की सरकार ने ऊँचे दामों पर राफेल का सौदा किया था, लेकिन उसके बावजूद तकनीकी स्थानांतरण की सहमति नहीं ली गई थी। और उसके बाद जब अभी इतनी विपरीत परिस्थिति में भी एसॉल्ट कंपनी ने राफेल का सोर्स कोड देने से भारत को इनकार कर दिया।
भारत के राफेल का गिरना न गिरना सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बल्कि भारत में भी चर्चित रहा। उसके बाद सरकार को यह भी लगता था कि यदि संसद बुलाई गई, तो उसके ईमानदार चेहरे को वैसे तो वह बचा नहीं पाई है, लेकिन शीर्ष पर भी आरोपों की बौछार की जाएगी। इन स्थितियों में उसका बचना बहुत मुश्किल हो जाता।
निष्कर्ष: सवालों से पलायन
आपकी प्रतिक्रियाओं से हमें इस पूरे घटनाक्रम पर आपके विचार जानने को मिलेंगे। तथ्यात्मक और तर्कपूर्ण आलोचना अन्य विमर्श की तरह हमारा मार्गदर्शन करेगी।
लेखक: प्रमोद जैन