जब इतिहास शर्मिंदा होता है...

 दिल्ली की कुर्सी: ललकार से कराहट तक

एक वक्त था जब दिल्ली की कुर्सी पर बैठा इंसान दुश्मन को ललकारता था। आज वही कुर्सी किसी रंगे सियार के नीचे कराह रही है—जो देश नहीं, अपने कॉर्पोरेट मालिकों की सेवा में झुका है। पहले LIC, BSNL, HAL, रेलवे, एयर इंडिया—देश की रीढ़—एक-एक करके बेच दी गई। हमने देखा, लेकिन फिर भी उम्मीद की कि शायद देश की गरिमा पर तो ये सौदा नहीं होगा। लेकिन अब? अब हमारी 1971 की शौर्यगाथा भी बाजार में रख दी गई... सिर्फ़ एक फोटो-ऑप के लिए!

1971 की गाथा: शौर्य से 2025 में शर्म तक

1971! जब इंदिरा गांधी ने अमेरिका की सातवीं फ्लीट की धमकी को ठोकर मार दी थी। जब रूस से संधि करके हमने अमेरिका की आँख में आँख डालकर बात की थी। जब भारतीय सेना ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बाँट दिया था, और 93,000 सैनिक हमारे आगे समर्पण कर चुके थे। और आज? एक ट्रम्प की मेज़बानी के लिए उस ऐतिहासिक जीत को 'गलतफहमी' बताने वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा है! न शर्म, न गरिमा, न रीढ़। बस कॉर्पोरेट के चंदे, कैमरे के सामने मुस्कराहट और अंतरराष्ट्रीय मंच पर घुटनों के बल।

नकली राष्ट्रवाद: देश का सम्मान बिकाऊ नहीं

ये नेता नहीं है, ये वो प्रोडक्ट है जिसे अरबों के बजट, मीडिया की बिसात और झूठे राष्ट्रवाद के रंग से रंगकर बेचा गया है। लेकिन वक्त रंग उतार देता है। अब देश पूछ रहा है—कहाँ है वो 56 इंच? कहाँ गया वो ललकारता हुआ ‘नया भारत’? क्यों अमेरिका की एक घुड़की पर जुबान सिल गई? देश का सम्मान कोई Jio की सिम या Paytm का ऑफर नहीं, जो जब चाहे बेच दो। इंदिरा गांधी की एक फटकार पर अमेरिका सहम गया था, और आज हम एक नकली "विश्वगुरु" के नाम पर अपनी ही जीत की कहानी को झुठला रहे हैं।

हाय रे गोदी मीडिया की चाटुकारिता ! प्रधानमंत्री के अपने दफ्तर जाने को भी ब्रेकिंग न्यूज बना डाला।

इतिहास का सवाल: जवाब कौन देगा?

इतिहास देख रहा है... और जब जवाब माँगेगा, तब ये सारा मेकअप, ये मीडिया, ये भाषण—कुछ काम नहीं आएगा।

Author - Ramanand Rai

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