क्या यही है लोकतंत्र का इन्तेज़ाम?

हो गया इन्तेज़ाम?

चुनाव आयोग का सुप्रीम कोर्ट में सनसनीखेज दावा

चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में साफ तौर पर फॉर्म 17C का पूरा डेटा सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया है। आयोग ने कहा कि आम मतदाता को यह जानने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में फॉर्म 17C के अनुसार कितने वोट पड़े। ध्यान दें, चुनाव आयोग ने मतदाता के कानूनी अधिकारों को लेकर कितने कठोर और तानाशाही शब्दों का इस्तेमाल किया है। अगर मतदाता के लिए इतने सख्त कानून हैं, तो फिर चुनाव आयोग को हर चुनाव से पहले अपने मतदाता जागरूकता अभियान में यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि वोट डालने के बाद मतदाता को क्या जानने का हक है और क्या नहीं। इससे मतदाता अपने अधिकारों को लेकर सतर्क रहेगा और इस भ्रम में नहीं रहेगा कि उसके वोट में कोई बड़ी ताकत है।

मतदाता अधिकारों पर पारदर्शिता की मांग

चुनाव आयोग को अपनी वेबसाइट पर मतदाता के कानूनी अधिकारों की सूची स्पष्ट रूप से प्रकाशित करनी चाहिए, ताकि मतदाता किसी गलतफहमी में न रहे। जब आयोग "वोट देना आपका अधिकार है, यह लोकतंत्र का पर्व है" जैसे नारे लगाता है, तो उसे यह भी बताना चाहिए कि मतदाता की जिम्मेदारी और अधिकार कहां तक सीमित हैं। अगर मतदाता को अपने वोटों का ब्यौरा जानने का हक ही नहीं है, तो फिर यह लोकतंत्र का पर्व कैसे हुआ? क्या यह आम जनता को मूर्ख बनाकर ठगने का खेल नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट के सवाल और चुनाव आयोग का जवाब

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से दो अहम सवाल पूछे थे: पहला—वह क्यों नहीं पारदर्शिता के साथ हर निर्वाचन क्षेत्र का डेटा सार्वजनिक कर सकता? और दूसरा—चुनाव के आंकड़े जारी करने में इतनी देरी क्यों हुई? जवाब में चुनाव आयोग ने अजीब तर्क दिया कि डेटा सार्वजनिक करना उसकी कानूनी बाध्यता नहीं है, न ही मतदाता को यह जानने का अधिकार है। इसके अलावा, आयोग ने यह भी कहा कि उसकी वेबसाइट पर डेटा सार्वजनिक करने से छेड़छाड़ की आशंका है, इसलिए वह ऐसा नहीं कर सकता।

चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल

चुनाव आयोग का यह तर्क अपने आप में कई सवाल खड़े करता है। अगर वेबसाइट पर डेटा में छेड़छाड़ संभव है, तो क्या आयोग यह स्वीकार कर रहा है कि उसकी वेबसाइट पर दी गई अन्य जानकारियां भी अविश्वसनीय हैं? क्या किसी निर्वाचन क्षेत्र की वोटर लिस्ट में भी छेड़छाड़ हो सकती है? क्या कोई लाखों फर्जी वोटर उस लिस्ट में जोड़ सकता है? और क्या आयोग द्वारा जारी वोटिंग प्रतिशत के आंकड़ों में भी हेरफेर संभव है? अगर हर तरह के डेटा में छेड़छाड़ की आशंका है, तो मतदाता आयोग पर भरोसा क्यों करे? फिर आयोग "लोकतंत्र का पर्व" जैसे नारों से मतदाता का वक्त क्यों बर्बाद कर रहा है?

फॉर्म 17C और EVM पर गड़बड़ी की आशंका

मैंने अपनी पिछली पोस्ट में चुनाव आयोग द्वारा आंकड़े जारी करने में 11 दिन की देरी पर सवाल उठाए थे। मैंने यह आशंका जताई थी कि इस देरी से EVM में गड़बड़ी की संभावना बढ़ जाती है। इस पर कई लोगों ने उग्र और अशिष्ट भाषा में जवाब दिया कि गड़बड़ी की कोई आशंका नहीं है, क्योंकि पोलिंग के बाद पीठासीन अधिकारी हर पोलिंग एजेंट को फॉर्म 17C में डाले गए वोटों की जानकारी देता है। इससे एजेंट किसी गड़बड़ी की स्थिति में आयोग के आंकड़ों को चुनौती दे सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि आयोग के लिए आंकड़े जारी करने की कोई कानूनी समय सीमा नहीं है। अब जब चुनाव आयोग ने फॉर्म 17C के आंकड़े सार्वजनिक करने से साफ इनकार कर दिया है, तो मैं उन सभी लोगों से अनुरोध करता हूं कि वे अब अपनी राय यहाँ दर्ज करें—अब उनका इस बारे में क्या कहना है?

चुनाव आयोग का कानूनी दांव-पेंच और छिपे राज

चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट में यह कह रहा है कि फॉर्म 17C के आंकड़े सार्वजनिक करना उसकी कानूनी बाध्यता नहीं है। इस कानूनी दांव-पेंच के परदे के पीछे कितने स्याह राज छिपे हैं, यह अब स्पष्ट हो रहा है। आयोग की इस गोपनीयता से उसकी नीयत पर सवाल उठ रहे हैं। क्या यह पारदर्शिता के खिलाफ एक सोची-समझी रणनीति है?

सुप्रीम कोर्ट का फैसला बाकी

कल सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर क्या बहस होती है और क्या कोर्ट चुनाव आयोग के तर्क को स्वीकार करता है, यह देखना बाकी है। लेकिन यह सवाल हर मतदाता के मन में है कि अगर उसे अपने वोटों का हिसाब जानने का हक नहीं है, तो फिर लोकतंत्र का यह ढांचा किसके लिए है?

— Javed Siddiqui

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने