चाटुकारिता की हदें
कल गोदी मीडिया का एक साक्षात्कार देखा। पत्रकारों के नाम पर बैठे चाटुकारों के हाव-भाव देखकर घृणा हुई। कोई काउंटर सवाल नहीं। निष्पक्षता का दिखावा करने के लिए पहली बार कुछ असहज सवाल पूछने की कोशिश जरूर की गई, लेकिन वह भी भरपूर तारीफ करने के बाद, ताकि सामने वाले को बुरा न लगे। फिर भी, यह सब पहले से तय लग रहा था—कि अब और असहज सवाल नहीं पूछे जाएँगे।
लेखक: संजीव शुक्ल
1. साक्षात्कार में चाटुकारिता: सवालों पर डांट और हँसी
शुरुआती असहज सवालों पर ही सख्त डांट पड़ गई। साक्षात्कार लेने वालों को "बुजदिल" तक कहा गया, और वे बेशर्मी से चुपचाप सुनते रहे। इन कथित एंकरों ने बार-बार यह सफाई देने की कोशिश की कि ये सवाल उनके अपने नहीं, बल्कि विपक्ष या जनता के बीच से आए हैं। फिर भी, उन्हें बख्शा नहीं गया।
इसी बीच, एक एंकर ने राहुल गांधी को लेकर सवाल पूछा। जवाब में प्रतिप्रश्न आया—"कौन राहुल?" इस पर सभी एंकर खिलखिलाकर हँस पड़े, मानो सामने वाले की प्रत्युत्पन्नमति का बेजोड़ उदाहरण मिल गया हो। लेकिन वे यह नहीं पूछ सके कि फिर आपके हर भाषण में आने वाला "शाहजादा" कौन है?
साक्षात्कार के दौरान बिना वजह हँसते रहे, सिर्फ इसलिए कि सामने वाले को खुश किया जा सके। यह विडंबना है कि यही एंकर स्टूडियो में बैठकर दर्पीले स्वर में ज्ञान बाँटते हैं। वहाँ वे एकतरफा बात करते हैं, विपक्षी प्रवक्ताओं की बोलती बंद कर देते हैं।
2. जनसरोकारों की अनदेखी: गोदी मीडिया का असली चेहरा
इन एंकरों को जनसरोकारों से कोई लेना-देना नहीं दिखता। वे कभी यह नहीं पूछते कि जब सभी की पेंशन बंद कर दी गई है, तो विधायक और सांसद इससे मुक्त क्यों हैं? वे बढ़ती बेरोजगारी पर सवाल नहीं उठाते। इन्हीं हरकतों के कारण इन्हें "गोदी मीडिया" की उपाधि मिली है। और सच कहें तो वे इस व्यवहार के हकदार भी हैं।
साक्षात्कार में गोदी मीडिया ने इस टैग को हटाने की भरसक कोशिश की, लेकिन निष्पक्ष दिखने की उनकी कोशिशें बेकार गईं। उन्हें साफ बता दिया गया कि वे विपक्ष के दबाव में सवाल पूछ रहे हैं। निर्देश था—"सवाल वही पूछो जो हमें पसंद हों।" सालों-साल चाटुकारिता करने के बाद अचानक क्रांतिकारी तेवर कौन स्वीकार करेगा?
3. सर्वज्ञानी सत्ता: पत्रकारिता को भी सिखाने की कोशिश
इन चापलूसों को यह नहीं पता था कि वे जिनका साक्षात्कार ले रहे हैं, वे "सर्वज्ञानी" हैं। जब वे रडार की सीमाएँ बताकर वैज्ञानिकों को राह दिखा सकते हैं, जब तक्षशिला को बिहार में लाकर भूगोल का इतिहास बदल सकते हैं, जब ताली-थाली बजाकर कोरोना को मात दे सकते हैं, तो पत्रकारिता के नए गुर सिखाना उनके लिए कौन-सी बड़ी बात है?
4. पूंजीपतियों का प्रभाव: स्वतंत्र पत्रकारिता पर अंकुश
बड़े-बड़े पूंजीमालिकों से जुड़े ये मीडिया संस्थान अपने मालिकों के इशारों पर नरेटिव गढ़ते हैं। यह स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ी बाधा है। मुख्यधारा की पत्रकारिता का यह हाल पहले कभी नहीं था। पत्रकारिता के व्यवसायीकरण ने इसके मूल्यों की हत्या कर दी।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। इसके मूल में सत्तावादी आधिपत्य की प्रवृत्ति है। सर्वाधिकारवादी प्रवृत्ति की यह स्वाभाविक परिणति है। अगर ऐसी प्रवृत्ति न हो, तो अभावों के बीच भी स्वतंत्र पत्रकारिता अपनी राह तलाश लेती। लेकिन जब सोशल मीडिया पर भी इतना नियंत्रण हो कि पोस्ट अपनी रीच के लिए तरस जाए, तो क्या किया जा सकता है? जब एक्स जैसे माध्यम इसकी पुष्टि करते हों, तो स्थिति की गंभीरता समझी जा सकती है।
5. नैतिक बोध का अभाव: बिके हुए पत्रकारों का भविष्य
स्वतंत्र पत्रकारिता की राह में कई अड़चनें हैं, लेकिन यहाँ मुख्यधारा के पत्रकारों जैसा दबाव नहीं है। बड़े चैनलों के पत्रकारों में नैतिक बोध का घोर अभाव है। इसी कारण वे आकर्षणों में बिककर अपनी बोली लगाने की स्वीकृति दे देते हैं। दबाव तो वैसे भी है।
लेकिन बिके हुए पत्रकार जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खो देंगे। बहुत देर तक लोगों को भ्रम में नहीं रखा जा सकता। खबरों के नाम पर मनोहर कहानियाँ ज्यादा समय तक नहीं चलतीं। जीवन के मूल प्रश्नों की अनदेखी हमेशा नहीं की जा सकती।
निष्कर्ष: असली पत्रकारिता की जीत होगी
देर ही सही, असली पत्रकारिता अपना स्थान बनाने में जरूर कामयाब होगी। मुख्यधारा की पत्रकारिता का यह हाल सत्ता, पूंजी और नैतिक पतन का परिणाम है, लेकिन सच्चाई की ताकत इसे हरा नहीं सकती।
लेखक: संजीव शुक्ल