स्टेट्समैन नेहरू: सेल्समैन की समझ से परे नेहरू

नेहरू की स्मृति पर प्रतीकात्मक हमला

नेहरू मेमोरियल का नाम बदलकर अब इसे पीएम म्यूजियम कहा जाएगा, और पीएम मोदी इसका उद्घाटन अंबेडकर जयंती के दिन करेंगे। नाम बदलना और अंबेडकर की छाया को आगे करके प्रतीकवाद की इस लड़ाई को नये स्तर तक ले जाना यकीनन मोदी समर्थकों को एक अलग तरह का किक देगा। यह लेख नेहरू की विरासत, उनके योगदान, और उनकी स्मृति को मिटाने की कोशिशों पर सवाल उठाता है।

नेहरू की नींव: लोकतंत्र और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

नेहरू मेमोरियल उन स्मृतियों का केंद्र था, जिन्होंने आजादी के शुरुआती 17 सालों तक भारत का नेतृत्व किया। नेहरू ने तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव डाली और उन्हें मजबूत किया। आधुनिक शिक्षा से जुड़ी अनगिनत संस्थाएँ—जैसे आईआईटी, आईआईएम—बनाईं, जिन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस कई पीढ़ियाँ तैयार कीं।

स्मृति को मिटाने की कोशिश: एक कष्टसाध्य प्रक्रिया

लोक स्मृति से नेहरू का नाम खुरच-खुरचकर मिटाने की प्रक्रिया मौजूदा सरकार के लिए आसान नहीं, बल्कि अत्यंत कष्टसाध्य है। सोचिए, कितना पैसा, समय, और दिमाग लग रहा होगा! लेकिन इतिहास इसे कैसे देखेगा? इतिहास गिनेगा कि नेहरू ने क्या-क्या बनाया और उनके बाद क्या-क्या मिटाया गया।

समावेशी राजनीति: नेहरू का अनुपम मॉडल

नेहरू ने जिस समावेशी राजनीति की बुनियाद डाली, उसकी मिसाल उस दौर की दुनिया में कहीं और नहीं मिलती। उनके मंत्रिमंडल में वामपंथी, दक्षिणपंथी, और मध्यमार्गी—हर तरह के लोग थे। संसद में ऐसे सांसद भी थे, जो अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की नीतियों पर प्रहार करने की क्षमता रखते थे।

जिन ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की मदद से नेहरू से लड़ा जा रहा है, वे सभी किसी न किसी रूप में उनके साथी या साझीदार रहे हैं। यही बात साबित करती है कि भारतीय राजनीति में नेहरू का होना क्या मायने रखता था।

स्टेट्समैन बनाम सेल्समैन: नेहरू की दूरदृष्टि

नेता वही बड़ा होता है, जो स्टेट्समैनशिप करता है, सेल्समैनशिप नहीं। स्टेट्समैन तर्क को बढ़ावा देता है, अक्सर धारा के विपरीत चलता है, और सोचता है कि जिस देश का वह पहरुआ है, अगले 50-100 साल में उसके लोग और भविष्य कैसे होंगे।

सेल्समैन हर चीज़ बेचता है, क्योंकि व्यापार उसके खून में होता है। वह समाज की भावनाओं को भुनाता है और लोक मानस का ऐसा मनोनुकूलन करता है कि लोग स्थायी रूप से अनुचर बनें, सत्ता से कभी सवाल न पूछें।

नेहरू का साहस: सकारात्मकता की राह

नेहरू के लिए सबसे आसान होता कि आजादी के बाद वे एक और हिंदू पाकिस्तान बना देते या संसदीय लोकतंत्र के बदले व्यक्ति-पूजक प्रेसिडेंशियल फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट लागू कर देते। अगर नेहरू सेल्समैन होते, तो वे वही करते, जो बँटवारे का दंश झेल चुके बहुसंख्यक समाज के मनोनुकूल होता। लेकिन उन्होंने नफरत के बदले सकारात्मकता को चुना।

नेहरू के किसी भाषण में इतिहास का रोना नहीं मिलेगा, सिर्फ भविष्य की संकल्पना मिलेगी। उन्होंने इंसान की बुनियादी अच्छाई पर यकीन किया और एक ऐसा समाज रचा, जिसे बरसों की कोशिशों के बावजूद स्थायी रूप से नफरती समूह में नहीं बदला जा सका। संघ की सबसे बड़ी पीड़ा यही है।

नफरत का असली निशाना: नेहरू का मॉडल

जिन इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी के दौरान संघियों की सबसे ज्यादा कुटाई-पिटाई की, उन्हें लगभग रौंद दिया और माफीनामा लिखने को मजबूर किया, उनके प्रति नफरत का भाव नहीं है। नफरत नेहरू से है, क्योंकि असल में नफरत एक उदार, वैज्ञानिक, समावेशी, और लोकतांत्रिक समाज के मॉडल से है।

लोक स्मृति की ताकत: नेहरू को मिटाना असंभव

क्या नाम मिटा देने से लोक स्मृति हमेशा के लिए बदल जाएगी? ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है, लेकिन असल में ऐसा होता नहीं। किसी को इतिहास से विस्थापित नहीं किया जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे किसी को जबरन स्थापित नहीं किया जा सकता।

उदाहरण के लिए, कांग्रेस सरकारों ने आजादी के बाद लगातार कोशिश की कि गाँधीजी को दलितों के सबसे बड़े हितचिंतक के रूप में स्थापित किया जाए और अंबेडकर की छवि को संविधान निर्माण तक सीमित कर दिया जाए। लेकिन क्या ऐसा हो पाया?

नेहरू की प्रासंगिकता: नई पीढ़ी की जिज्ञासा

2014 के बाद से नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया जितनी बिकी है, उतनी शायद पहले कभी नहीं बिकी। युवा पीढ़ी जानना चाहती है कि जिस व्यक्ति के खिलाफ इतना बड़ा और व्यवस्थित नफरत का कैंपेन चलाया जा रहा है, उसकी सोच क्या थी।

नेहरू का अमरत्व

तमाम संस्थाओं से नेहरू का नाम मिटा दिया जाए, सारी मूर्तियाँ तोड़ दी जाएँ, लेकिन दिल के किसी कोने में जहाँ लोकतांत्रिक मूल्य जीवित होंगे, वहाँ नेहरू मिल जाएँगे। असहमति और विरोध को चरम घृणा में बदल देना ‘नये भारत’ की पहचान है, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि असहमति का पहला पाठ नेहरू ने ही इस देश को पढ़ाया था।

राकेश कायस्थ

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