चुनाव और मैनेजमेंट का खेल
बात ज्यादा पुरानी नहीं है। हमारे प्रदेश में तब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। प्रदेश भयानक बिजली संकट से जूझ रहा था। शहर में गर्मियों की रातों में दो-दो घंटे की बिजली कटौती हुआ करती थी। चुनाव नजदीक थे। एक मौके पर किसी सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा था—कौन कहता है कि चुनाव काम से जीते जाते हैं? चुनाव तो मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। इस बयान ने अचंभित कर दिया। गुस्सा भी आया। उस साल चुनाव में वोट ही नहीं दिया। कांग्रेस भी हार गई।
पत्रकारिता का पतन: संपादक से मैनेजर तक
पत्रकारिता शुरू करने के कुछ साल बाद हमारे अखबार में चर्चा शुरू हुई कि संपादक की जगह मैनेजर की नियुक्ति होनी चाहिए। आखिर संपादक की जरूरत ही क्या है? हर विभाग में तो संपादक हैं ही, वे अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं। उन दिनों पता चला कि बड़े-बड़े अंग्रेजी अखबारों में संपादकों की जगह मैनेजर्स ले चुके हैं।
तब मैंने एक लेख लिखा—‘जरूरत वैज्ञानिकों की है, हम पैदा कर रहे हैं मैनेजर्स...’। यह सन्डे सप्लीमेंट की कवर स्टोरी के रूप में छपा। धीरे-धीरे संपादक-विहीन खबरों की दुनिया का पतन शुरू हो गया। जहाँ संपादकों की जरूरत स्वीकार भी की गई, वहाँ उन्हें मैनेजर की भूमिका तक सीमित कर दिया गया। पत्रकारिता मैनेजमेंट का रूप लेती गई। संपादक अब बाजार, राजनीति, खबर, और नफा-नुकसान को मैनेज करने वाले मैनेजर बन गए। यहीं से पत्रकारिता के लुप्त होने की भूमिका बनी।
इलेक्शन मैनेजमेंट: नया युग नया उद्योग
2014 के आम चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के बाद प्रशांत किशोर (पीके) का नाम हर जगह सुनाई दिया। तब जाना कि लोकतंत्र में एक नए उद्योग की शुरुआत हो गई है—इलेक्शन मैनेजमेंट। ऐसा नहीं कि यह विधा पहले नहीं थी। हर काम में, जहाँ कई लोग लगे हों, मैनेजमेंट तो होता ही है। घर के चार लोगों के बीच भी मैनेजमेंट की जरूरत पड़ती है, तो चुनाव में क्यों नहीं? लेकिन यह तथ्य कि इलेक्शन मैनेजमेंट चुनाव जितवा सकता है, इसने बुरी तरह हिला दिया।
अण्णा आंदोलन, औद्योगिक घरानों का नरेंद्र मोदी को समर्थन, कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोप, तमाम घोटालों का भंडाफोड़, विनोद राय के आरोप, और फिर प्रशांत किशोर—ये सब एक ही जंजीर की कड़ियाँ हैं। मैनेजमेंट, जैसा हम समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा विस्तृत विधा है।
इमेज मेकिंग: पब्लिक सेंटीमेंट की बाजीगरी
पत्रकारिता के दौरान कभी-कभी फिल्म पेज की जिम्मेदारी भी उठाई। फिल्म सप्लीमेंट के लिए लिखते समय जाना कि इमेज मेकिंग भी एक करियर है। तब लगता था कि यह सिर्फ ग्लैमर इंडस्ट्री का सच है। जब सलमान खान जेल में थे, तब कई लोग उनके ‘बीइंग ह्यूमन’ और मदद करने के जज्बे पर लिख रहे थे। क्या यह इत्तफाक था? नहीं, यह इमेज मेकिंग का हिस्सा था। पब्लिक सेंटीमेंट को मैनेज करने की ट्रिक थी।
2008 के मुंबई हमले में पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब के बारे में सरकार के वकील उज्जवल निकम ने प्रेस को बताया कि कसाब ने जेल में बिरयानी माँगी। देश का पब्लिक सेंटीमेंट उसके खिलाफ हो गया। 2015 में, कसाब को फाँसी के तीन साल बाद, निकम ने एक इंटरव्यू में खुलासा किया कि कसाब ने न तो बिरयानी माँगी, न दी गई। यह पब्लिक सेंटीमेंट को उसके खिलाफ करने के लिए फेब्रिकेट किया गया था।
पप्पू से नवरात्रि तक: मैनेजमेंट का कमाल
आज बीजेपी ने राहुल गांधी को ‘पप्पू’ के नाम से स्थापित कर दिया। पढ़े-लिखे, समझदार लोग भी राहुल को पप्पू कहते हैं। यह भी इलेक्शन मैनेजमेंट का हिस्सा है। प्रधानमंत्री नवरात्रि में उपवास करते हैं, माँ से मिलने कब जाते हैं, माँ को कब निवास पर बुलाते हैं, अलग-अलग भाव-भंगिमाओं में उनके फोटो थोड़े-थोड़े अंतराल पर रिलीज करना, यह सब मैनेजमेंट ही है।
प्रशांत किशोर: मैनेजमेंट से राजनीति तक
इन दिनों फिर से पीके की चर्चा है। सोचती हूँ, कौन हैं प्रशांत किशोर? 2014 के चुनावों में आंशिक योगदान के अलावा उनकी और क्या योग्यता है? इलेक्शन मैनेजमेंट करते-करते वे राजनीति में घुसपैठ क्यों कर रहे हैं? डरावनी बात यह है कि पिछले दस सालों से भारतीय लोकतंत्र में मैनेजमेंट का दौर चल रहा है। लगता है, भारतीय लोकतंत्र में जो थोड़ा-बहुत दम बचा है, वह भी निकल जाएगा।
बाजार का औजार बनता लोकतंत्र
बाजार ने लोकतंत्र को भी अपना औजार बना लिया है। हम इमेज मेकिंग, इवेंट मैनेजमेंट, और पोलिटिकल मैनेजमेंट के नए दौर में कदम रख चुके हैं। यदि आँख-कान खुले और दिमाग सतर्क नहीं रखा, तो आप भी इस बाजार का हिस्सा बन जाएँगे। फिर ऐसा वक्त आ सकता है, जब बाजार आपको अपने खिलाफ ही इस्तेमाल कर ले। तब आप समझेंगे, जब खुद को ठग चुके होंगे।
यकीन मानिए, मैनेजमेंट ठगी का नया रूप है।
#विचार_सूत्र
Author - अमिता नीरव
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