नेहरू की विदेश नीति से खिलवाड़: भारत की वैश्विक पहचान का संकट

गुट निरपेक्षता की विरासत

नेहरूजी से लाख ईर्ष्या की जा सकती है, लेकिन उनकी बनाई विदेश नीति से खिलवाड़ करना ठीक नहीं। हमारी विदेश नीति गुट निरपेक्षता पर आधारित रही है। भारत 140 गुट निरपेक्ष देशों के समूह का अगुआ रहा है। एक समय पूरी दुनिया हमारा रुख देखकर अपनी नीतियाँ बनाती थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद विश्व पटल पर सबसे मुखर आवाज़ गुट निरपेक्ष देशों की थी। जब दुनिया दो ध्रुवों (अमेरिका और रूस) में बँटी थी, तब भी दोनों महाशक्तियाँ भारत को महत्व देती थीं, क्योंकि हमारी विदेश नीति स्वतंत्र और मज़बूत थी।

1. SAARC और पड़ोसियों से संबंध: बड़े भाई की भूमिका

श्री राजीव गांधी के समय SAARC की स्थापना हुई थी, ताकि दक्षिण एशिया के देशों में आपसी समन्वय, मेलजोल और व्यापार को बढ़ावा मिले। SAARC का मुख्यालय नेपाल जैसे छोटे देश में बनाया गया, ताकि हमारे छोटे पड़ोसी देश अपने को कमतर न समझें। भारत की भूमिका बड़े भाई जैसी थी। जब तक SAARC सक्रिय रहा, तब तक पाकिस्तान को छोड़कर सभी पड़ोसी देश हमारे निकटतम साथी थे और उनकी विदेश नीति हमसे प्रभावित रहती थी।

2. आज की दयनीय स्थिति: पड़ोसियों से दूरी

भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है और आबादी के लिहाज़ से दूसरा सबसे बड़ा देश है। लेकिन आज हमारी स्थिति यह है कि बड़े देश तो दूर, दक्षिण एशिया के हमारे छोटे और कमज़ोर पड़ोसी देश भी हमारे साथ नहीं हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तख्तापलट जैसी बड़ी घटना हुई, और हम इतने विवश हैं कि इस मसले पर छोटे देशों का मुँह देख रहे हैं।
हमने अफ़ग़ानिस्तान के विकास और पुनर्निर्माण में 23,000 करोड़ रुपये की भारी धनराशि लगाई। हमारे सैकड़ों इंजीनियर और कर्मचारी तालिबानियों द्वारा मारे गए। लेकिन अब हम वहाँ अवांछित देश बन गए हैं। कूटनीतिक संबंध दो राष्ट्र प्रमुखों के व्यक्तिगत संबंधों पर नहीं, बल्कि दोनों देशों की सरकारों पर आधारित होते हैं—चाहे सत्ता किसी की भी हो।

3. वैश्विक मित्रों का खोना: चीन की बढ़त

पूर्वी और पश्चिमी एशिया, मध्य एशिया और मध्य पूर्व के देश हमारे परम मित्र थे, लेकिन आज वे सभी चीन के साथ हैं। हमारी कोई अहमियत नहीं बची। अफ्रीकी देशों और उत्तरी/दक्षिणी लैटिन अमेरिका के देशों की तो बात करना भी अब बेकार है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम आज़ादी से पहले भी इतने अलग-थलग नहीं थे।

4. अमेरिका पर निर्भरता: स्वतंत्रता का ह्रास

लेखक का मानना है कि हमारी विदेश नीति अब पूरी तरह अमेरिका पर आश्रित हो गई है। हमें किन देशों से संबंध बनाना या बिगाड़ना है, यह अब अमेरिका तय करता है। खाड़ी देशों—ईरान और इराक—जो हमारे परंपरागत और भरोसेमंद दोस्त थे, उनसे हमने अमेरिका के कहने पर दूरी बना ली। इससे हमें आर्थिक और सामरिक दोनों तरह से भारी नुकसान हुआ।

  • ईरान के जिस बंदरगाह को हम अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुँच बढ़ाने के लिए विकसित कर रहे थे, उसे ईरान ने हमसे छीनकर चीन को दे दिया।
  • ईरान से सस्ता तेल और गैस पाइपलाइन जैसे प्रोजेक्ट्स पर सवालिया निशान लग गए हैं।

5. अफ़ग़ानिस्तान ने बेपर्दा की विदेश नीति

किसी भी देश की विदेश नीति की सफलता उसके पड़ोसी और अन्य देशों से व्यापारिक व सामरिक संबंधों की गहराई से आँकी जाती है। इस मामले में हम बुरी तरह नाकाम रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान ने हमारी विदेश नीति को पूरी तरह बेपर्दा कर दिया। वहाँ हमें अमेरिका का पिछलग्गू माना गया। शायद इसी वजह से हमें वहाँ से सब कुछ समेटना पड़ रहा है। अमेरिका हमारे नागरिकों को अफ़ग़ानिस्तान से निकालने में मदद कर रहा है, क्योंकि काबुल हवाई अड्डा अभी भी उसके नियंत्रण में है।

6. वैश्विक बाज़ार बनकर रह गया भारत

आज हम दुनिया के लिए सिर्फ़ एक बाज़ार बनकर रह गए हैं। हमारा कोई भरोसेमंद मित्र देश नहीं है, जो संकट के समय हमारी मदद कर सके। अमेरिका हमें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करता है। हम नाटो सदस्य नहीं हैं कि अमेरिका किसी संकट में हमारी मदद करेगा।

  • हमारे पासपोर्ट की वैश्विक रैंकिंग लगातार गिरकर 88वें स्थान पर पहुँच गई है, जो पहले 73वें स्थान पर थी।

स्वतंत्र विदेश नीति की ज़रूरत

बदलती वैश्विक और सामरिक परिस्थितियों में हमें अपनी विदेश नीति की गहराई से समीक्षा करनी चाहिए। हमें अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर कायम रहने की ज़रूरत है, ताकि भारत पहले की तरह मज़बूत, शक्तिशाली और अपनी पहचान वाला देश बन सके। पिछलग्गुओं और कमज़ोरों का कोई सम्मान नहीं करता।

Author - RK Jain

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