नेहरू - एक राष्ट्र के प्रतीक
परम विद्वान और प्रेम बाँटने वाली करिश्माई शख्सियत पंडित जवाहरलाल नेहरू कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि अपने आप में एक राष्ट्र हैं। भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में एक ऐसे महानायक हुए, जिनके राजनीति में पदार्पण के बाद वैश्विक परिदृश्य में उत्सुकता बढ़ी। आज कई लोगों को लगता है कि भारत की ख्याति अब बढ़ी है, लेकिन सच्चाई यह है कि भारत हमेशा से ज्ञानियों की धरती रहा है और इसका स्थान विश्व में हमेशा उच्च रहा है। यह लेख नेहरू के व्यक्तित्व, उनके योगदान, और उनके खिलाफ चल रहे दुष्प्रचार का जवाब देता है।
नेहरू का कद: दुष्प्रचार के बावजूद विराट
आज के दौर में भारत में कोई भी प्रधानमंत्री बन जाए, उसकी इज्जत होगी—इसमें ढोल पीटने की बात नहीं। जानने लायक पहलू यह है कि आज पंडित नेहरू के कद को छोटा करने के लिए तरह-तरह से दुष्प्रचार किया जाता है। फिर भी, नेहरू का कद और विराट होता जा रहा है। इस नकारात्मक दौर में पंडित नेहरू का नाम और प्रासंगिक हो गया है। हमें सोचने की जरूरत है कि आधुनिक युग में हम संकीर्णता से क्यों ग्रसित हो रहे हैं।
स्वाधीनता संग्राम से साहित्य तक: नेहरू की बौद्धिकता
नेहरू ऐसे युगपुरुष थे, जिन्होंने जेल में अपने समय का सदुपयोग करते हुए एक से बढ़कर एक महान पुस्तकें लिखीं। 1947 में देश आजाद हुआ, लेकिन अंग्रेजी सत्ता के बाद भी भारत अपनी संस्कृति, परंपराओं, और शांतिप्रिय स्वभाव के कारण दुनिया के लिए आकर्षक रहा। समय-समय पर भारत में ऐसे महानायक हुए, जिन्होंने भारत सहित पूरी दुनिया को नई दिशा दी। पंडित जवाहरलाल नेहरू उनमें से एक थे।
लोकतंत्र की मजबूती: नेहरू की प्रशासनिक दूरदृष्टि
जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने, तब भारत में आधी से ज्यादा आबादी कपड़े नहीं पहनती थी। भारत और पाकिस्तान एक साथ आजाद हुए। मुस्लिम लीग ने मजहब के नाम पर पाकिस्तान की मांग की थी, जबकि भारत अपनी रूढ़िवादी सोच को छोड़कर आधुनिकीकरण की राह पर बढ़ रहा था। पूरी दुनिया का इतिहास देखें तो जिन देशों में सेना का राजनीतिक दखल रहा, उन्होंने कभी स्थिरता नहीं पाई। आज भी पाकिस्तान लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थिरता हासिल नहीं कर सका।
वहीं, भारत में कांग्रेस इतनी मजबूत थी कि उसने सेना पर नियंत्रण पाया और प्रशासनिक सुधार किए, जिसके कारण आज भारत में सेना का कोई राजनीतिक दखल नहीं है। यह पंडित नेहरू की बेहतरीन प्रशासनिक व्यवस्था का नतीजा है। आजादी के बाद अगस्त 1947 में नेहरू ने ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ को लिखा, “सेना या किसी भी क्षेत्र से जुड़ी नीति में भारत सरकार के आदेश का पालन होना चाहिए। अगर सेना का कोई अधिकारी भारत सरकार की नीति का पालन नहीं करेगा, तो भारतीय सेना में उसकी कोई जगह नहीं होगी।” आज भी सेना भारतीय प्रशासनिक आदेश की बाध्यता मानती है।
वैश्विक मंच पर भारत: नेहरू की नेतृत्व क्षमता
रूढ़िवादी देश, जो अंग्रेजी गुलामी से अभी-अभी बाहर निकला था, वहाँ नेहरू बतौर प्रधानमंत्री ग्लोबल लीडर बनकर उभरे। उनकी वजह से दुनिया की बड़ी संस्थाएँ भारत की ओर हसरत से देखने लगीं। 1955 में यूनेस्को पेरिस समिट में नेहरू ने सुझाव दिया कि अगला समिट 1956 में दिल्ली में कराया जाए। बड़े-बड़े मुल्कों ने इसकी मंजूरी दे दी। कुछ मुल्कों की मंशा थी कि भारत इतने बड़े आयोजन की मेजबानी नहीं कर पाएगा, ताकि नेहरू की क्षमता को परखा जा सके।
समस्या यह थी कि मेहमानों के ठहरने के लिए देश में कोई फाइव स्टार होटल नहीं था। नेहरू की अपील पर रियासतों के पूर्व शासकों ने 10 से 20 लाख का योगदान दिया और बाकी खर्च फंड से पूरा किया गया। इस तरह देश का पहला फाइव स्टार होटल—दिल्ली के चाणक्यपुरी में अशोका होटल—बना। यह नेहरू के देश की इज्जत बचाने के प्रयास का प्रतीक था। 1956 में यूनेस्को सम्मेलन हुआ तो कई राष्ट्राध्यक्षों ने नेहरू की तारीफ की।
आधुनिक भारत की नींव: नेहरू के योगदान
आजादी के बाद नेहरू ने शिक्षा, सामाजिक सुधार, आर्थिक क्षेत्र, राष्ट्रीय सुरक्षा, और औद्योगीकरण में महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने देश की तस्वीर बदलने के लिए कड़े फैसले लिए, जिनकी उस समय निंदा और मजाक भी हुआ। लेकिन उन फैसलों ने देश को आर्थिक मोर्चे पर मजबूत बनाया। जब देश में 90% लोग हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते थे, तब नेहरू ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, और उद्योग जगत को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाए।
उन्होंने आईआईटी, आईआईएम, और विश्वविद्यालयों की स्थापना की। भाखड़ा नंगल बाँध, रिहंद बाँध, और बोकारो इस्पात कारखाना जैसे प्रोजेक्ट शुरू किए, जिन्हें वे देश के आधुनिक मंदिर मानते थे। यह एक अत्यंत आधुनिक सोच वाले इंसान की ही बात हो सकती है।
गुट-निरपेक्षता: नेहरू की विदेश नीति
आज अमेरिका, रूस, और चीन की दादागिरी देखने को मिलती है, लेकिन भारत की हैसियत कभी पिछलग्गू देशों जैसी नहीं रही। भारत हमेशा से अपनी गुट-निरपेक्ष राजनीति का प्रधान मुल्क रहा है। नेहरू चाहते थे कि भारत किसी भी देश के दबाव में न आए और विश्व में उसकी स्वतंत्र पहचान हो। उनकी विदेश नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा पंचशील का सिद्धांत था, जिसमें राष्ट्रीय संप्रभुता बनाए रखना और दूसरे राष्ट्र के मामलों में दखल न देना जैसे पाँच शांति-सिद्धांत शामिल थे।
नेहरू ने गुट-निरपेक्षता को बढ़ावा दिया, जिसका मतलब था कि भारत किसी भी गुट की नीतियों का समर्थन नहीं करेगा और अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बनाए रखेगा। इससे किसी भी राष्ट्र को आपत्ति नहीं हुई। आज भी भारत नेहरू की विदेश नीति पर चलता है। उन्हें खारिज करने वालों को इस पर जरूर सोचना चाहिए।
देश की एकता: नेहरू का संवैधानिक संशोधन
भारत कई राज्यों से मिलकर बना है, और हर राज्य की अपनी विशेषता है। फिर भी, देश एकता के सूत्र में बँधा है। कुछ कट्टरपंथी लोगों ने राज्यों की अस्मिता के नाम पर अस्थिरता पैदा करने की कोशिश की। एक दौर में दक्षिण भारत में अलग द्रविड़नाडु की मांग उठी। ‘द्रविड़ कड़गम’ ने इसकी मांग की और आंदोलन शुरू किया।
नेहरू ने देश की अखंडता को बनाए रखने के लिए बड़ा कदम उठाया। उनकी कैबिनेट ने 5 अक्टूबर 1963 को संविधान का 16वाँ संशोधन पारित किया। इस संशोधन ने अलगाववादियों की कमर तोड़ दी। इसके माध्यम से देश की संप्रभुता और अखंडता के हित में मूल अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए। साथ ही, तीसरी अनुसूची में परिवर्तन कर शपथ ग्रहण में ‘मैं भारत की स्वतंत्रता एवं अखंडता को बनाए रखूँगा’ जोड़ा गया। इस संशोधन के बाद द्रविड़ कड़गम को द्रविड़नाडु की मांग हमेशा के लिए भूलनी पड़ी।
आर्थिक नींव: पंचवर्षीय योजनाओं की सफलता
नेहरू ने अपनी दूरदृष्टि से पंचवर्षीय योजनाएँ बनाईं, जिनसे देश को आज भी लाभ मिल रहा है। पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) लागू हुई। शुरुआत में अर्थशास्त्रियों को इसकी सफलता पर संदेह था, लेकिन 1956 तक यह संदेह खत्म हो गया। इस दौरान विकास दर 3.6% दर्ज की गई, जो एक रिकॉर्ड था। प्रति व्यक्ति आय सहित अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ोतरी हुई। पहली योजना में कृषि क्षेत्र पर ध्यान दिया गया, तो दूसरी योजना (1956-61) में औद्योगिक क्षेत्रों पर जोर दिया गया, जिससे औद्योगिकीकरण का सुनहरा दौर शुरू हुआ।
आज औद्योगिकीकरण के नाम पर सारी संपत्ति निजी हाथों में सौंपकर ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मनाया जा रहा है। बहुमत के नाम पर मनमानी करने वाली सत्ता को सोचना होगा कि असली लोकतांत्रिक सुधार नेहरू ने किए थे।
लोकतंत्र का सम्मान: सहनशील नेहरू
1952 में देश में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए। नेहरू लोकतंत्र में आस्था रखते थे। 1957 और 1962 के चुनावों में लगातार जीत के बाद भी उन्होंने विपक्ष को पूरा सम्मान दिया। संसद में नेहरू विपक्षी नेताओं की बात ध्यान से सुनते थे। 1963 में अपनी पार्टी के विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराना मंजूर किया।
अटल बिहारी वाजपेयी ने सदन में नेहरू से कहा, “आपके अंदर चर्चिल भी है और चैंबरलिन भी, आपका मिला-जुला व्यक्तित्व है।” नेहरू ने उनकी बात का बुरा नहीं माना। उसी दिन शाम को दोनों की मुलाकात हुई, और नेहरू ने अटल की तारीफ करते हुए कहा, “आज का भाषण बड़ा जबरदस्त रहा।” नेहरू आलोचना का बुरा नहीं मानते थे, बल्कि विपक्ष का सम्मान करते थे। आज के दौर में आलोचना के नाम पर विपक्षी नेताओं के घर सीबीआई और ईडी भेज दी जाती है।
विनम्र नेहरु और भारत रत्न का दिए जाने का सच
हमेशा नेहरू को भारत रत्न दिए जाने पर निशाना साधा जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने खुद इसकी सिफारिश नहीं की। शीत युद्ध के दौर में 13 जुलाई 1955 को नेहरू सोवियत संघ और यूरोपीय देशों के सफल दौरे से लौटे। इस यात्रा ने वैश्विक मामलों में भारत की बड़ी भूमिका स्थापित की और खूब ख्याति बटोरी। भारत लौटने पर राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद प्रोटोकॉल तोड़कर उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट पहुँचे। दिल्ली एयरपोर्ट के बाहर जबरदस्त भीड़ नेहरू के स्वागत में जमा थी। नेहरू ने वहाँ एक छोटा भाषण भी दिया।
तमाम मतभेदों के बावजूद राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने खुद निर्णय लिया कि नेहरू को भारत रत्न दिया जाए। यह भी आरटीआई से खुलासा हुआ है।
समकालीन विडंबना: नेहरू की उपेक्षा
आज के दौर में बड़ी विडंबना है। नेहरू की पुण्यतिथि 27 मई को होती है, लेकिन इसी दिन देश के नए संसद भवन का उद्घाटन करने की बजाय, 28 मई को सावरकर की जन्मतिथि पर उद्घाटन किया गया। यह निंदनीय है। पंडित नेहरू की पुण्यतिथि को दरकिनार करना भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में हमेशा याद रखा जाएगा।
नेहरू को अमर उनका काम और उनका व्यक्तित्व बनाता है
आज नेहरू की मृत्यु के 59 साल बाद भी कुछ लोग उनके नाम की आड़ लेकर अपने कुशासन को सही ठहराते हैं। कितनी घृणित बात है कि आज का पीएम गालियाँ गिनाता है कि मुझे गालियाँ दी जाती हैं, जबकि नेहरू स्वाधीनता संग्राम में बतौर क्रांतिकारी नौ बार जेल गए, लेकिन उन्होंने कभी इसका जिक्र नहीं किया। उन्होंने अंग्रेजी सत्ता पर ठीकरा नहीं फोड़ा।
किसी ने सही कहा, “पूरी दुनिया की लोकतांत्रिक राजनीति में एक ऐसा महानायक हुआ, जिसने लोकतांत्रिक राजनीति को छुआ और राजनीति शुद्ध हो गई।” पंडित नेहरू अपने विचारों और उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही अमर हैं।
दिलीप कुमार पाठक
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