गाँधी और केजरीवाल
अरविन्द केजरीवाल की पार्टी द्वारा सरकारी दफ्तरों से गाँधी को बेदखल कर देने पर छिटपुट प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया में हैं । यह एक जरुरी विमर्श था जो एक दो पोस्ट्स तक सीमित कर दिया गया। जबकि इसकी तीव्र प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी।
अरविन्द केजरीवाल मेग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थे। सामाजिक कार्यकर्त्ता और सामाजिक संगठनों का एक मत है कि वे चुनावी राजनीति में भाग नहीं लेते बल्कि सरकारों पर बाहर से दबाव बनाते हैं और जन पक्षीय काम करवाते हैं। यह मूलभूत तत्व आज के संगठनों में गायब हुआ जाता है ! चढूनी में अति राजनीतिक महत्वाकांक्षा है और राजेवाल जी को भी उसी महत्वाकांक्षा में लपेट लिया गया! यही वजह है कि संगठन अब उठते नहीं और अल्प समय में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
सत्ता से बाहर होते हुए जब आप को जनपक्षीय मुद्दों के लिए सरकार पर दबाव बनाना होता है तब 'आ.आ.पा.' को गाँधी की जरुरत पड़ती है। अरविन्द केजरीवाल गाँधी के बिना या कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता गाँधी के बिना अपनी विचारधारा या अपना कद स्थापित नहीं कर सका।
आंदोलनों की जरूरत है गांधी।
आरएसएस गांधी का घोषणा हत्यारा है फिर भी शुरू से लेकर सत्ता हासिल करने तक उसने गांधीवादी टूल इस्तेमाल किये और गैर भाजपाई सरकारों पर दबाव बनाये। पेट्रोल में एक रूपये दाम में अगर वृद्धि हो जाती थी तो आरएसएस प्रशिक्षित भाजपाई चेहरे गांधीवादी मुखौटा चढ़ाकर खूब बवाल काटते थे।
जैसे ही अरविन्द सत्ता में आये, जैसे ही आरएसएस प्रशिक्षित दल सत्ता में आया उन्होंने बाहरी दबाव का सबसे बड़ा कारक ख़त्म करने का बीड़ा उठाया। भाजपा ने गाँधी को ख़त्म किया और गुजरात में उन्होंने कोई आंदोलन कामयाब नहीं होने दिया।
अरविन्द ने अन्ना आंदोलन में गांधी को खूब भुनाया और सत्ता में आते ही गांधी से ही सबसे पहले किनारा किया क्योंकि गांधी सत्ता पर दबाव बनाने का बाहरी हथियार है और यह हथियार अरविन्द के हाथ में रहे तो बेहतर, जनता इस हथियार का प्रयोग क्यों करें।
अरविन्द केजरीवाल के सत्ता में आने के बाद उनका आंदोलनों को समर्थन भी गिन लिया जाए कि वे कितने जन आंदोलनों के समर्थन में मैदान में उतरे और किसी जन आंदोलन को यदि समर्थन दिया भी तो उसमे राजनीतिक गणित शामिल किया गया। आज अरविन्द नहीं चाहते कि कोई आंदोलन सत्ता के खिलाफ खड़ा हो जबकि ऐसा भी नहीं है कि अरविन्द के सत्ता में आने से जनता की तमाम मुश्किलें हल हो गयी हैं ।
अरविन्द आरएसएस के मुखोटे हैं या नहीं यह इस लेख का विमर्श नहीं लेकिन जन पक्षीय राजनीति को आरएसएस की नजर से देखने की अरविन्द की इस राजनीति की निंदा की जाती है।
लेखक - वीरेंदर भाटिया
मूल आलेख आर्काइव -