निर्देशित बहस और आम आदमी की चुप्पी
गोदी मीडिया हो या सोशल मीडिया, यहाँ होने वाली बहसों पर आम आदमी का कोई नियंत्रण नहीं है। मेरे जैसे लोग किसी खास मुद्दे पर चर्चा शुरू करने की कोशिश करते हैं, लेकिन चंद लोग भी इसमें हिस्सा नहीं लेते। एक अदृश्य ताकत यहाँ मौजूद है, जो करोड़ों लोगों के ज़हन को नियंत्रित करती है और जो चाहती है, उसी पर बहस शुरू हो जाती है। मैं इस हकीकत को जानते हुए भी उन मुद्दों पर लिखता और बोलता हूँ, जो निर्देशित बहस के दायरे से बाहर होते हैं, हालाँकि निर्देशित बहस में भी अपना नजरिया रखता हूँ।
1. कश्मीरी पंडितों पर बहस: एकतरफा नजरिया
कश्मीरी पंडितों पर छिड़ी बहस को लेकर मैंने एक लेख लिखा और कुछ दोस्तों के लेख साझा किए। जिन्होंने इसका विरोध किया, उनका कहना था कि मेरे जैसे लोग कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को नकारते हैं, उनके साथ हुए अत्याचार का समर्थन करते हैं। कुछ मित्रों ने सीधे पूछा, "आपको कश्मीरी पंडितों की पीड़ा क्यों नहीं दिखती?" कुछ पत्रकार मित्रों का कहना था, "यह वक्त कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के साथ खड़े होने का है, सवाल करने का नहीं!"
मैं ऐसी बहसों में सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि न्याय भारतीयों के चरित्र का हिस्सा नहीं है।
2. भारतीय चरित्र में न्याय का अभाव
हमने सदियों से जातिगत अन्याय को देखा है, जीवन भर इसे अपने आसपास घटते देखा है। इसलिए यह हमें स्वाभाविक लगता है। यही हाल लैंगिक असमानताओं का है। भारतीयों, खासकर उत्तर भारत के लोगों में वह दृष्टि ही नहीं है कि वे न्याय और अन्याय को पहचान सकें और न्याय के पक्ष में खड़े हो सकें। यह बात आपको आहत कर सकती है। आपको लग सकता है कि इसमें क्या बड़ी बात है—न्याय और अन्याय तो एक बच्चा भी जानता है। लेकिन जानने और इसे चरित्र का हिस्सा बनाने में बहुत फर्क है।
हमारे व्यवहार और चिंतन में न्याय की भावना का अभाव साफ दिखता है। जातिगत अन्याय को हम रोज देखते हैं, लेकिन यह हमारे व्यवहार का हिस्सा बन गया है। इसे कश्मीरी पंडितों के संदर्भ में और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
3. कश्मीरी पंडित और अन्य विस्थापित: दोहरा मापदंड
1989 से 1990 के बीच 300 कश्मीरी पंडितों की हत्या के आँकड़े हैं। 1990 से 1995 तक उनका कश्मीर से पलायन हुआ। इस दौरान हजारों मुसलमान और सुरक्षा बल के लोग भी मारे गए, और बड़ी संख्या में मुसलमानों का भी घाटी से पलायन हुआ। वे कहाँ गए, इस पर शोध होना चाहिए।
इसी देश में नेल्ली में रातों-रात 2000 मुसलमानों की हत्या हुई, जिनके अपराधियों को कांग्रेस सरकारों ने माफ कर दिया। मृतकों के परिजनों को नाममात्र का मुआवजा मिला। गुजरात दंगों में ट्रेन में 62 और बाद में 790 लोग मारे गए, गैर-सरकारी आँकड़े 2000 की बात करते हैं। ट्रेन हादसा पुलवामा की तरह रहस्य बना हुआ है।
आदिवासियों के 640 गाँव जला दिए गए, हजारों लोग विस्थापित हुए, लेकिन उन्हें कोई सरकारी सहायता नहीं मिली। मुजफ्फरनगर दंगों में विस्थापित लोग, जो दिल्ली से सिर्फ 100 किलोमीटर दूर हैं, आज तक अपने घर नहीं लौट सके। न सरकार ने उनकी सुध ली, न राजनेताओं ने। (ये आँकड़े स्मृति पर आधारित हैं, यदि गलत हों तो मित्र सुधार सकते हैं।)
जो लोग कश्मीरी पंडितों के लिए आँसू बहाते हैं, उन्होंने इन अन्य पीड़ितों के बारे में कभी नहीं सोचा। कश्मीरी पंडितों को नौकरियों में आरक्षण, स्कूलों में उनके बच्चों को दाखिले की सुविधा, और केंद्र सरकार से अब तक अरबों रुपये की मदद मिल चुकी है। फिर भी, अपनी जमीन से उखाड़े जाने का दर्द हजार सहायता से कम नहीं हो सकता। यह मानसिक पीड़ा है, जो जीवन भर रहेगी। लेकिन 30 साल से हजारों करोड़ की मदद के बाद भी उनकी पीड़ा कम नहीं हुई।
इसके बहाने देश भर में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाई जा रही है। लेकिन उन हजारों अन्य लोगों के लिए, जो अपनी जमीन से उखाड़े गए, न हम बोलते हैं, न सरकारें। क्या यही हमारी न्याय भावना है?
एक कड़वी बात कहूँ—अगर आप कश्मीरी पंडितों जैसी सहायता का वादा करें, तो देश में लाखों लोग दिल्ली में बसने को तैयार हो जाएँगे।
4. आतंकवाद: एक राजनीतिक प्रोजेक्ट
जो लोग आतंकवाद को किसी जाति, समुदाय या धर्म से जोड़ते हैं, उन्होंने तर्क का इस्तेमाल बंद कर दिया है। भारत में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की बात सरकार और मीडिया बताते हैं। लेकिन इख्वानुल मुसलमीन, जो कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ खड़ा आतंकवादी संगठन था, उसे किसने बनाया? उसका खर्च कौन उठाता था? सलवा जूडूम, जो आदिवासियों के खिलाफ आदिवासियों का गुंडा गिरोह था, उसे किसने खड़ा किया? डीएसपी देवेंद्र सिंह जैसे लोग किसके लिए काम करते थे? उनके पकड़े जाने पर सरकार ने सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की? अफजल गुरु का नाम बार-बार लेने के बावजूद उस पर जाँच क्यों नहीं हुई? इन सवालों की जद में कांग्रेस सहित सभी केंद्र सरकारें आती हैं।
कुछ समय पहले खबर आई थी कि भारत की 40 कंपनियाँ ISIS के साथ व्यापार कर रही हैं। यह कितना सच था, यह जानने का साधन हमारे पास नहीं है। यह भी खबर आई थी कि ISIS के लड़ाकों को भारत में ट्रेनिंग दी जा रही है। हम इन्हें बेबुनियाद मान लेते हैं। लेकिन ISIS के हथियार देखें—वे झोले में स्मगल नहीं किए गए, बल्कि जहाजों में भरकर ले जाए गए, किसी पोर्ट पर उतारे गए। यह बिना किसी देश के सहयोग के संभव नहीं है।
मेरा मानना है कि आतंकवाद एक राजनीतिक प्रोजेक्ट है। दुनिया के ज्यादातर देश इसका इस्तेमाल करते हैं—दुश्मन देशों के खिलाफ, और अपनी जनता में खास तरह की मानसिकता बनाने के लिए। अफगानिस्तान में सक्रिय लड़ाकों को अमेरिका ने तैयार किया था। अरब देशों में सक्रिय ISIS भी अमेरिका का मोर्चा है।
कुछ लोगों ने मुझसे पूछा, "क्या लोग पागल हैं जो अमेरिका के कहने पर हथियार उठा लेते हैं?" मैं उनसे पूछता हूँ—क्या आप पागल हैं, जो आधे सच पर आधारित फिल्म देखकर मुसलमानों पर चढ़ दौड़ते हैं? क्या आप पागल हैं, जो मुसलमानों के खिलाफ फैलाई गई नफरत के आधार पर सरकारें चुनते हैं? जाहिर है, पागलपन पर आपकी एकाधिकार नहीं है। जैसे आप नफरत की सियासत के साथ खड़े हो गए, वैसे ही दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ऐसा हो रहा है।
5. सियासी नफरत का शिकार: असमान पीड़ा का नजरिया
अगर आपको हर विस्थापित एक जैसा पीड़ित नजर नहीं आता, तो आप सियासी नफरत के शिकार हैं। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा में बस एक बात खास है कि वह "पंडित की पीड़ा" है। वरना आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों की पीड़ा उनसे जरा भी कम नहीं, बल्कि ज्यादा है। क्योंकि उन्हें कश्मीरी पंडितों की तरह अरबों रुपये की सरकारी सहायता नहीं मिली, न ही हमारा और आपका नैतिक समर्थन। यह सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि अन्याय हम भारतीयों का स्वभाव बन चुका है।
निष्कर्ष: न्याय को समझने की जरूरत
अब आप गालियाँ दें, मुसलमानों के अपराध गिनाएँ, या उनके दर्द को किंतु-परंतु के साथ जायज ठहराएँ। लेकिन यह सब करते वक्त एक बार जरूर सोचें कि "न्याय भावना" क्या कहती है। "न्याय" को समझने के लिए ज्यादा पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं है।
लेखक: सलमान अरशद